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________________ २२२ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र sococcococcasnccccccccccmamiccoooooooooooooocccce धारिजमाणेणं सेयवर० हयगय० महया भडचडगरपहकरेणं बारवईए णयरीए मझमझेणं णिग्गच्छइ० जेणेव पुरत्थिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ २ ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं एगयओ मिलइ २ त्ता खंधावारणिवेसं करेइ २ ता पोसहसालं अणुप्पविसइ २ त्ता सुट्टियं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ। भावार्थ - कृष्ण वासुदेव हाथी पर सवार हुए। कोरंट पुष्पों की माला से युक्त छत्र उन पर तना था। श्वेत चँवर डुलाए जा रहे थे। वे घोड़े, हाथी, रथ तथा पदाति सहित अनेकानेक बड़े बड़े योद्धाओं से घिरे हुए द्वारका नगरी के बीचो-बीच होते हुए निकले। लवण समुद्र के पूर्वी तट पर पहुंचे। वहाँ पांच पांडवों के साथ मिले, एकत्र हुए, उन्होंने पड़ाव डाले। ऐसा कर पौषधशाला में प्रविष्ट हुए तथा लवण समुद्र के अधिपति सुस्थित देव का मन में स्मरण करने लगे। देव सहायता से समुद्र पार (१७५) .. तएं णं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सुट्टिओ जाव आगओ - भण देवाणुप्पिया! जं मए कायव्वं । तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं देवं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया! दोवई देवी जाव पउमणाभस्स भवणंसि साहरिया, तण्णं तुमं देवाणुप्पिया! मम पंचहिं पंडवेहि सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवण समुद्दे मग्गं वियरेहि जण्णं अहं अवरकंका रायहाणिं दोवईए कूवं गच्छामि। भावार्थ - कृष्ण वासुदेव के तेले की तपस्या पूर्ण होने पर सुस्थित देव उनके समक्ष उपस्थित हुआ यावत् वह बोला - देवानुप्रिय! कहें, मेरे द्वारा क्या करणीय है-मैं आपके लिये क्या करूं? ___यह सुनकर कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से कहा - देवानुप्रिय! देवी द्रौपदी का हरण हुआ है यावत् वह पद्मनाभ राजा के भवन में है। देवानुप्रिय! तुम पांच पांडवों के साथ मुझे छह रथ सहित लवण समुद्र में मार्ग दो, जिससे मैं द्रौपदी देवी की खोज में अपरकंका राजधानी में जा सकू। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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