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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र පපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපුද जारिसिया दिट्टपुव्वा यावि होत्था। तए णं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं एवं वयासीतुब्भं चेव णं देवाणुप्पिया! ए(यं)वं पुव्वकम्मं। तए णं से कच्छुल्लणारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे उप्पयणिं विज्जं आवाहेइ २ त्ता जामेव दिसिं पाऊन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
भावार्थ - तब कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा - देवानुप्रिय! आप बहुत से ग्राम यावत् नगर आदि में जाते रहते हैं। कहीं आपने द्रौपदी देवी का कोई शब्द यावत् प्रवृत्ति, तद्विषयक कोई जानकारी प्राप्त की।
कच्छुल्ल नारद ने वासुदेव से यों कहा - एक बार धातकी खण्ड द्वीप में, पूर्व दिशा के दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में, अपरकंका नामक राजधानी में जाने का प्रसंग बना। तब मैंने राजा पद्मनाभ के भवन में द्रौपदी देवी जैसी नारी को देखा।
तब कृष्ण वासुदेव कच्छुल्ल नारद से बोले - देवानुप्रिय! सर्वप्रथम आपने ही मुझे द्रौपदी के संबंध में सूचना दी है। और देवानुप्रिय! यह आपकी ही करतूत जान पड़ती है।
कृष्ण वासुदेव द्वारा यों कहे जाने पर - नारद ने उत्पतनी विद्या का आह्वान किया और । आकाश में उड़ते हुए जिस दिशा से आए थे, उस ओर चले गए। द्रौपदी के छुटकारे का सफल प्रयास
__ (१७०) तए णं से कण्हे वासुदेवे दूयं सद्दावेइ २ ता एवं वयासी - गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरं पंडुस्स रण्णो एयमढे णिवेदेहि - एवं खलु देवाणुप्पिया! धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे अवरकंकाए रायहाणीए पउमणाभभवणंसि दोवईए देवीए पउत्ती उवलद्धा। तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा पुरस्थिमवेयालीए ममं पडिवालेमाणा चिटुंतु।
__ भावार्थ - तदनंतर कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाया उससे कहा - देवानुप्रिय! तुम हस्तिनापुर जाओ और राजा पांडु को यह निवेदन करो कि धातकी खण्ड द्वीप के पूर्वार्द्ध भाग में, अपरकंका राजधानी में, पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी के होने का पता चला है।
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