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________________ अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - कुंती द्वारा सहायता हेतु श्रीकृष्ण से अनुरोध २१७ शब्दार्थ - पिउच्छा - पितृस्वसा (पिता की बहन-बूआ) । भावार्थ - राजा पांडु द्वारा यों कहे जाने पर कुंती देवी ने उनका कथन स्वीकार किया। वह स्नान, नित्य नैमित्तिक मांगलिक कर्म संपादित कर, हाथी पर सवार हुई और हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच होती हुई, रवाना हुई। कुरु जनपद के बीच से गुजरती हुई वह सौराष्ट्र में द्वारवती नगरी के निकट पहुँची। वहाँ के बहिर्वर्ती उद्यान में पहुँची, हाथी से नीचे उतरी। कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियो! द्वारका नगरी में कृष्ण वासुदेव के निवास स्थान पर जाओ। उनसे हाथ जोड़, मस्तक पर अंजलि बाँधे, यह निवेदन करो कि स्वामी! आपकी भुआ कुंती देवी हस्तिनापुर नगर से यहाँ शीघ्रतापूर्वक आई है। आपसे भेंट करना चाहती है। (१६२) __ तए णं से कोडुंबियपुरिसा जाव कहेंति। तए णं कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसाणं अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्टे हत्थिखंधवरगए हयगय० बारवईए णयरीए मज्झंमज्झेणं जेणेव कोंती देवी तेणेव उवागच्छइ २ त्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ २ त्ता कोंतीए देवीए पायग्गहणं करेइ २ त्ता कोंतीए देवीए सद्धिं हत्थिखधं दुरुहइ २ ता. बारवईए णयरीए मज्झंमोणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सयं गिहं अणुप्पविसइ। भावार्थ - तत्पश्चात् कौटुंबिक पुरुषों ने यावत् कृष्ण वासुदेव से कुंती देवी का संदेश कहा। यह सुनकर कृष्ण वासुदेव प्रसन्नता पूर्वक हाथी पर सवार हुए। द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होते हुए, जहाँ कुंती देवी रुकी थी, वहाँ आए। आकर हाथी से नीचे उतरे। कुंती देवी का चरण स्पर्श किया। फिर कुंती देवी के साथ हाथी पर सवार हुए। द्वारका नगरी के बीच से होते हुए, अपने प्रासाद में आए। (१६३) तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंती देवि ण्हायं कयबलिकम्मं जिमियभुत्तुत्तरागयं जाव सुहासणवरगयं एवं वयासी - संदिसउ णं पिउच्छा! किमागमणपओयणं? . भावार्थ - जब कुंती देवी ने स्नान, नित्य मांगलिक कर्म, भोजन आदि किया यावत् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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