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सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाइं पवरपरिहिया जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ २ त्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ ।
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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भावार्थ उत्तम राजकन्या द्रौपदी यथासमय स्नान घर की ओर गई। वहाँ जाकर स्नान गृह में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर स्नान किया यावत् शुद्ध वस्त्र धारण किए, मांगलिक कृत्य किए। फिर उसने देव प्रतिमा का अर्चन किया । वैसा कर वह अन्तःपुर में चली गई ।
विवेचन - इस सूत्र में आये हुए 'जिणपडिमाणं अच्चणं' इस शब्द को लेकर मन्दिरमार्गी बन्धु कहते हैं कि द्रौपदी श्राविका थी, वह विवाह मण्डप में जाने से पूर्व "जिन प्रतिमा" की अर्चना करके गई। यह बात इस पाठ से सिद्ध है। अतएव हमें भी मूर्ति पूजा करनी चाहिये । उनका यह कथन सत्यता से कितना दूर है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में द्रौपदी के जीवन की प्रमुख घटना की जानकारी होना आवश्यक है, जिससे वस्तु स्थिति सहज ही समझ में आ जावेगी । .
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द्रौपदी का कथानक नागश्री ब्राह्मणी के जीवन से प्रारम्भ होता है, नागश्री ब्राह्मणी ने “धर्मरुचि” नाम के तपोधनी अनगार को मासिक तपस्या के पारणे के दिन कटु तुम्बे का हलाहल जहर के समान आहार बहराया जिसके सेवन से उस महान् तपोधनी मुनिराज को दारुण वेदना होकर उनके प्राण पंखेरु उड़ गये । तपस्वी हत्या के कारण नागश्री के पति ने उसे घर से निकाल दिया। नागश्री भिखारिन हुई और अशुभ कर्मोदय से रोगिणी बन कर मृत्यु को पाकर नरक में गई। नरक सम्बन्धी महान् वेदना को भोगती हुई और अनेकों भव करती हुई, भटकती भटकती मनुष्य भव को प्राप्त हुई। वहाँ सुकुमालिका नाम की बालिका के नाम से पहिचानी जाने लगी। पति के तिरस्कार से दुःखी हो उसने चारित्र ग्रहण किया, कुछ ही समय बाद वह चारित्र से पतित होकर शिथिलाचारिणी बन गई। गुरुणी ने सुकुमालिका आर्या को पृथक् कर दिया । इस प्रकार चारित्र विराधना करती हुई एक बार एक वैश्या को पांच पुरुषों के साथ क्रीड़ा करते देख कर उसने यह " निदान" किया कि “यदि मेरी करणी का फल हो तो मैं भी इसी प्रकार पांच पति के साथ विपुल भोगों को भोगती हुई विचरूं।" इस प्रकार निदान कर बिना आलोचना प्रायश्चित्त किये विराधिका हो मृत्यु को प्राप्त कर स्वर्ग में गई। वहाँ का आयुष्य पूर्ण होने पर मनुष्य भव में द्रौपदीपने उत्पन्न हुई । यौवनावस्था के प्राप्त होने पर उसके लिए स्वयंवर रचा गया। उस समय वह स्नानादि से निवृत्त होकर जिन घर में गई, वहाँ जिन प्रतिमा की पूजा कर स्वयंवर मण्डप में गई । निदान के प्रभाव से द्रौपदी ने सभी राजा-महाराजाओं को छोड़कर
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