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________________ अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - विपुल भोगाकांक्षामय निदान - १७१ Sacacocccccccccccccccccccccccccccccccccccccccck. णो रोएइ एयमढं असद्दहमाणे ३ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छठें छद्रेणं जाव विहरइ। भावार्थ - साध्वी सुकुमालिका ने आर्या गोपालिका के इस कथन में श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं दिखलाई। इस प्रकार उनके वचन में अश्रद्धा करती हुई, वह सुभूमिभाग उद्यान के न अधिक निकट न अधिक दूर बेले-बेले की तपस्या करती हुई यावत् आतापना लेने लगी। . विपुल भोगाकांक्षामय निदान । __(७२) तत्थ णं चंपाए ललिया णाम गोट्ठी परिवसइ णरवइदिण्ण(वि)पयारा अम्मापिइणिययणिप्पिवासा वेसविहारकयणिकेया णाणाविहअविणयप्पहाणा अड्डा जाव अपरिभूया। शब्दार्थ - ललिया - ललित क्रीड़ा, मनोरंजन आदि में निरत, णरवइदिण्णपयारा - राजा द्वारा प्रदत्त स्वच्छन्द विहार के स्वातन्त्र्य से युक्त, णिप्पिवासा - अभिरुचिरहित-निरपेक्ष, वेस - वेश्या, णिकेया - निवास-घर। - भावार्थः - उस चंपा नगरी में ललित क्रीड़ा विनोद एवं मनोरंजन में संलग्न रहने वाली विलासीजनों की एक टोली थी। अपनी विशिष्ट सेवा से उन्होंने राजा को प्रसन्न कर रखा था। अतः राजा ने उन्हें स्वच्छंद विहार की छूट दे रखी थी। उन विलास प्रियजनों की माता-पिता एवं पारिवारिकजनों में कोई रुचि नहीं थी। वेश्या का आवास ही उनका घर था। वे विविध प्रकार के अविनय पूर्ण कार्यों में लगे रहते थे। वे धनाढ्य थे यावत् किसी के कुछ कहने, सुनने की परवाह नहीं करते थे। तत्थ णं चंपाए० देवदत्ता णामं गणिया होत्था सुकुमाला जहा अंडणाए। तए णं तीसे ललियाए गोट्ठीए अण्णया (कयाइ) पंच गोहिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। तत्थ णं एगे गोढिल्लगपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे धरेइ एगे पिट्टओ आयवत्तं धरेइ एगे पुप्फदूरयं रएइ एगे पाए रएइ एगे चामरुक्खेवं करेइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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