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अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - प्रव्रज्या ग्रहण saarocesscccccccccreaseeeeecrasaccecracGEEKaccoracock तस्स वि य णं अणिट्ठा जाव अमणामा भवामि, तुब्भे य णं अज्जाओ! बहुणायाओ एवं जहा पोटिला जाव उवलद्धे जेणं अहं सागरस्स दारगस्स इट्ठा कंता जाव भवेज्जामि।
भावार्थ - सार्थवाह पुत्री सुकुमालिका ने पिता का यह कथन स्वीकार किया एवं पाकशाला में से अशन-पान आदि पदार्थों का दान करती हुई रहने लगी। ___उस काल उस समय गोपालिका नामक बहुश्रुत आर्या वहाँ पधारी। यहाँ तेतलीपुत्र अध्ययन में सुव्रता आर्या के संबंध में आया हुआ वर्णन ग्राह्य है। उसी की तरह गोपालिका आर्या के एक सिंघाडे ने यावत् उसकी पाकशाला में प्रवेश किया यावत् सुकुमालिका ने उसी प्रकार उन्हें आहारदान द्वारा प्रतिलाभित किया और बोली - आर्याओ! मैं सार्थवाह पुत्र सागर के लिए अनिष्ट यावत् अमनोरम हूँ। वह मेरा नाम तक सुनना नहीं चाहता यावत् सुखभोग की तो बात ही क्या? जिस किसी को भी मैं दी जाती रही, उस-उस के लिए मैं अमनोरम होती रही। आर्याओ! आप अत्यंत ज्ञानवती है। यहाँ पोट्टिला के प्रसंग में आया हुआ वर्णन योजनीय है यावत् कोई ऐसा उपाय बताएँ, जिससे मैं श्रेष्ठी पुत्र सागर के लिए इष्ट, कांत यावत् प्रिय सिद्ध हो सकूँ।
प्रव्रज्या ग्रहण
___ (६८) अज्जाओ तहेव भणंति तहेव साविया जाया तहेव चिंता तहेव सागरदत्ते स० आपुच्छइ जाव गोवालियाणं अंतिए पव्वइया। तए णं सूमालिया अज्जा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी बहूहिं चउत्थछट्टट्ठम जाव विहरइ।।
भावार्थ - आर्याओं ने वैसा ही कहा जैसा सुव्रता की आर्याओं ने तेतलीपुत्र के अध्ययन में पोट्टिला को कहा था। सुकुमालिका श्राविका बनी। पोट्टिला की तरह उसका वैराग्योन्मुख चिंतन आगे बढ़ा यावत् वह अपने पिता सागरदत्त सार्थवाह से दीक्षा की अनुज्ञा लेकर आर्या गोपालिका के पास प्रव्रजित हुई। ___ इस प्रकार सुकुमालिका साध्वी हो गई। ईर्यासमिति से संपन्न यावत् ब्रह्मचर्यादि महाव्रतों का भलीभाँति पालन करती हुई उपवास, बेले एवं तेले आदि की तपस्याएँ करती हुई यावत् आत्मानुभावित . होती हुई अपना साधनामय जीवन व्यतीत करने लगी।
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