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________________ १६४ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Saccooooooooooococccccccccccccccccccccccccccccx जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ २ ता सुकुमालियं दारियं सद्दावेइ २ ता अंके णिवेसेइ २ त्ता एवं वयासी - किण्णं तव पुत्ता! सागरएणं दारएणं मुक्का? अहं णं तुमं तस्स दाहामि जस्स णं तुम इट्ठा जाव मणामा भविस्ससित्ति सूमालियं दारियं ताहिं इट्ठाहिं जाव वग्गहि समासासेइ २त्ता पडिविसज्जइ। शब्दार्थ - कुड्डंतरिए - दीवार के पीछे से, विलिए - विशेष रूप से शर्मिन्दा, विड्डे - अन्तर्व्यथित। भावार्थ - सागरदत्त सार्थवाह ने दीवार की आड़ से जिनदत्त के पुत्र सागर का यह कथन सुना। सुनकर वह बहुत लज्जित हुआ, शर्म से गड़ गया और मन ही मन व्यथा से भर गया। वह जिनदत्त के घर से चलकर अपने घर आया। अपनी पुत्री सुकुमालिका को बुलाया, उसे अपनी गोदी में बिठाया और कहा - पुत्री! सागरदत्त ने तुम्हारा परित्याग कर दिया है। मैं तुम्हें ऐसे वर को दूंगा, जिसे तुम मनःप्रिय यावत् मनोरम लगोगी। इस प्रकार उसने सुकुमालिका को इष्ट, प्रिय वाणी द्वारा आश्वासन दिया और उसे अपने स्थान पर जाने को कहा। (५६) . तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे अण्णया उप्पिं आगासतलगंसि सुहणिसण्णे रायमग्गं ओलोएमाणे २ चिट्ठइ। तए णं से सागरदत्ते एगं महं दमगपुरिसं पासइ दंडिखंडणिवसणं खंडगमल्लगखंडघडग हत्थगयं मच्छियासहस्सेहिं जाव अणिज्जमाणमग्गं। शब्दार्थ - दमगपुरिसं - दरिद्र पुरुष को। भावार्थ - तदनंतर सार्थवाह सागरदत्त किसी समय अपने प्रासाद की छत पर सुखपूर्वक बैठा हुआ बार-बार राजमार्ग का अवलोकन कर रहा था। तब सागरदत्त को अत्यंत दरिद्र पुरुष दिखाई दिया। वह परस्पर जुड़े हुए, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहने था। उसके हाथ में फूटा हुआ घड़े का हिस्सा था, सिर के बाल बिखरे थे। हजारों मक्खियाँ यावत् उसका पीछा कर रही थीं। ... तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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