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अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - सुकुमालिका का परित्याग १६३ scccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccces
(५६) तए णं जिणदत्ते सागरदत्तस्स सत्यं० एयमढे सोच्चा जेणेव सागरए दारए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सागरयं दारयं एवं वयासी - दुडु णं पुत्ता! तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हव्वमागए, तेणं तं गच्छह णं तुमं पुत्ता! एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे।
शब्दार्थ - दुछु - अशोभनीय।
भावार्थ - जिनदत्त सागरदत्त का यह कथन सुनकर अपना पुत्र सागर जहाँ था, वहाँ आया और बोला - पुत्र! तुमने बड़ा अशोभनीय एवं बुरा कार्य किया है, जो तुम सागरदत्त के घर से अचानक एकदम चले आए। पुत्र! तुम सागरदत्त के घर जाओ।
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तए णं से सागरए जिणदत्तं एवं वयासी - अवि याइं अहं ताओ! गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुप्पवायं वा जलणप्पवेसं वा विसभक्खणं वा सत्थोवाडणं वा वेहाणसं वा गिद्धपिठं वा पव्वज्जं वा विदेसगमणं वा अन्भुवगच्छिज्जामि णो खलु अहं सागरदत्तस्स गिहं गच्छिज्जा। . शब्दार्थ - मरुप्पवायं - निर्जल मरुभूमि में रहना, वेहाणसं - गले में फांसी लगाना, सत्थोवाडणं. - शस्त्र से देह को विदीर्ण करवाना।
भावार्थ - सांगर ने जिनदत्त से यों कहा - तात! मुझे पर्वत से गिरना, वृक्ष से गिरना, जल से रहित रेगिस्तान में खो जाना, जल में डूब जाना, अग्नि में प्रवेश कर जाना, विष खा लेना, फांसी पर लटक जाना, शस्त्र द्वारा शरीर को विदीर्ण करवाना, गिद्धों का भोजन बनने के लिए उष्ट आदि की मृत देह में प्रविष्ट कर जाना, प्रव्रज्या ग्रहण करना या विदेश में चले जाना-ये सब स्वीकार हैं, किंतु मैं सागरदत्त के घर नहीं जाऊंगा।
(५८) तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे कुटुंतरिए सागरस्स एयमढं णिसामेइ २ त्ता लज्जिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स सत्थवाहस्स गिहाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता
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