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अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - सुकुमालिका की देह का अग्निकणोपमस्पर्श १५६ SECOcccccccccccccccccccccccREEGROCERaccooccore लगा मानो कोई तलवार हो यावत् अग्निकणों से परिपूर्ण उष्ण भस्म हो। इतना ही नहीं यह हस्त स्पर्श उसे अनिष्ट-अकाम्य, असा प्रतीत हुआ, सागर न चाहता हुआ भी विवशता पूर्वक कुछ देर उस स्थिति में बैठा रहा। सुकुमालिका की देह का अग्निकणोपमस्पर्श
. (४७) . तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तणाइ विपुलं असणं ४ पुप्फवत्थ जाव सम्माणेत्ता पडिविसजेइ। तए णं सागरए दारए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगंसि णिवज्जइ।
शब्दार्थ - तलिगंसि - शय्या पर।
भावार्थ - सागरदत्त सार्थवाह ने सागर के माता-पिता, मित्र, जातीयजन आदि को भोजन कराया, पुष्प, वस्त्र यावत् माला अलंकार आदि से सम्मानित कर विदा किया। तत्पश्चात् सागर सुकुमालिका के साथ अपने वासगृह-शयनकक्ष में आया। सुकुमालिका के साथ वह शय्या पर लेटा।
(४८) ___तए णं से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ से जहाणामए असिपत्तेइ वा जाव अमणामय रागं चेव अंगफासं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ। तए णं से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए अंगफासं असहमाणे अवसव्वसे मुहत्तमित्तं संचिट्ठइ। तए णं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाओ उठेइ २ त्ता जेणेव सए सयणिजे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सयणीयंसि णिवजइ।।
भावार्थ - सार्थवाह पुत्र सागर ने सुकुमालिका के शरीर का ज्यों ही स्पर्श किया उसे अनुभूत हुआ जैसे कोई तलवार हो यावत् अग्निकण युक्त राख हो। इतना ही नहीं उसका अंग स्पर्श उससे भी कहीं अधिक अमनोज्ञ, अप्रिय प्रतीत हुआ। वह उसके अंग स्पर्श को सह नहीं सका। विवश होकर कुछ समय वहाँ स्थित रहा।
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