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________________ अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन श्री का गृह से निष्कासन, घोर दुर्गति १४६ ********************************* साधुओं द्वारा उपर्युक्त रूप में कहे जाने का अभिप्राय नागश्री को घर से निकलवाना या ताड़ित, प्रताड़ित करवाना नहीं था। उन्होंने तो केवल उसके कृत्य की जघन्यता को ही प्रकाशित किया, जिससे भविष्य में वैसे कार्य की पुनरावृत्ति न हो । धर्मघोष अनगार ने नागश्री की बात प्रकट क्यों की? इस सम्बन्ध में गुरु भगवन्त इस प्रकार फरमाते हैं. - धर्मघोष आचार्य आगम व्यवहारी थे। अपने आगमज्ञान में उचित अनुचित समझ कर प्रवृत्ति करने वाले होने से श्रुतव्यवहार की विधियाँ (शास्त्रों के विधि निषेध) उन पर लागू नहीं होती हैं। आगम व्यवहारी ही उनकी प्रवृत्ति को उचित अनुचित बता सकते हैं एवं उसका प्रायश्चित्तादि दे सकते हैं। श्रुत व्यवहारी नहीं । वर्तमान् में भरतक्षेत्र में आगम व्यवहारी प्रायः नहीं हैं। धर्मरुचि अनगार की कड़वे तुम्बे के कारण मृत्यु हो जाने से कभी लोग ऐसी कल्पना न कर लें कि - साधुओं ने विष देकर तपस्वी साधु को मार दिया । इसलिए पहले से ही लोगों के सामने सही स्थिति रख देनी चाहिए। ताकि लोगों को दूसरी कल्पना का मौका ही नहीं मिले इत्यादि कारणों से आचार्य धर्मघोष ने साधु साध्वियों को भेज कर लोगों को इस घटना की सही जानकारी दिला दी। (२६) तए णं तेसिं समणाणं अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ एवं भासइ-धिरत्थु णं णागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए । भावार्थ उन श्रमणों का यह कथन सुनकर बहुत से लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत करने लगे इस नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार है यावत् इसने विषैला तूंबा बहरा कर मुनि को मार डाला । नागश्री का गृह से निष्कासन, घोर दुर्गति - - - Jain Education International (२७) तए णं ते माहणा चंपाए णयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव णागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति २ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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