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________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र BOOSX को धिक्कार है, जिसने तथारूप अति तपस्वी अनगार धर्मरुचि को खारे तूंबे का यावत् घृतलिप्त व्यंजन भिक्षा में दिया, जिसे उदरगत कर वे अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त हुए । (२५) १४८ तए णं ते समणा णिग्गंथा धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए एयमहं सोच्चा णिसम्म चंपाए सिंघाडग-तिग जाव बहुजणस्स एवमाइक्खंति ४ - धिरत्थु णं देवाणुप्पिया ! णागसिरीए माहणीए जाव णिंबोलियाए जाए णं तहारूवे साहू साहुरूवे सालइएणं जीवियाओ ववरोविए । भावार्थ - स्थविर धर्मघोष से निर्ग्रन्थों ने यह सुन कर चंपानगरी के तिराहे, चौराहे यावत् चौक मार्ग इत्यादि पर बहुत से लोगों से यह कहा - देवानुप्रियो ! नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार है यावत् वह निंबोली के समान कटुतायुक्त है जिसने वैसे महान् तपस्वी, साधुत्व के जीवित प्रतीक धर्मरुचि को खारा तूंबा बहरा कर मौत के घाट उतार दिया। विवेचन - स्थविर धर्मघोष से धर्मरुचि अनगार की मृत्यु के संबंध में जब साधुओं ने सुना तो वे चंपानगरी के तिराहे, चौराहे, चौक आदि में जाकर नागश्री द्वारा किए गए कुकृत्य के बारे में कहने लगे कि उस अधन्या, अपुण्या ब्राह्मणी ने कितना निकृष्ट कार्य किया, जो साधुत्व के प्रतीक, तपश्चरणशील धर्मरुचि अनगार को जानते - बूझते हुए खारा तूंबा बहरा कर मार डाला । इसकी जो प्रतिक्रिया हुई उसका आगे के सूत्रों में वर्णन है । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है, साधुओं को ऐसा करने की क्या आवश्यकता थी? जिसका परिणाम नागश्री का गृह से निष्कासन एवं विविध प्रकार से कष्ट देने के रूप में प्रकट हुआ और वह घोर दुर्दशा को प्राप्त हुई । यह सही है कि वह अत्यंत पापिष्ठा और निकृष्ट महिला थी किंतु शत्रु और मित्र में समभाव रखने का आदर्श रखने वाले साधुओं द्वारा उक्त रूप में कहा जाना कहाँ तक संगत है ? इस प्रश्न पर गहराई से, सूक्ष्मता से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि नागश्री द्वारा यह जानते हुए भी कि यह खारा तूंबा ग्रहण करने वाले की जान ले लेगा, केवल देवरानियों एवं पारिवारिक जनों के उपहास से बचने के लिए साधु को बहरा दिया जाना कलुषित निन्द्य और पापपूर्ण कृत्य है। अपने थोड़े से बचाव के लिए अत्यंत त्यागी, तपस्वी साधु के जीवन का कुछ भी मूल्य नहीं आंकना जघन्य कृत्य है। कोई भी व्यक्ति ऐसा घोर पाप पूर्ण कृत्य नहीं करे, यह प्रेरणा देना उन द्वारा असंगत, अनुचित नहीं कहा जा सकता। नहीं कहने पर लोगों को ऐसे दुष्कृत्य से दूर रहने की प्रेरणा कैसे प्राप्त होती ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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