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________________ [13] BIHARRORRneRRARAMDBARMERAamVARORABORDERA.ORamnaEMERGBABERRORAMEBORFRORADARAPTanmaran a maDeoreasarawenesalmerserveerwasaardesawerPERSPEEEEEEDSersarme r बहू के समान इस भव में सभी लोगों का वंदनीय पूज्यनीय होता है और पर भव में देवलोक अथवा मोक्ष के सुखों को प्राप्त करता है। ४. जो संयमी साधक पांच महाव्रत ग्रहण कर उनका निरतिचार पालन ही नहीं करता बल्कि रात दिन संयम के पर्यायों को बढ़ाने में प्रयत्नशील रहता है वह साधक इस भव में तीर्थ का समुदाय करने वाला, कुतीर्थिका का निराकरण करने वाला और सर्वत्र वंदनीय पूज्यनीय होकर क्रमशः सिद्धि गति को प्राप्त करता है। आठवां अध्ययन - इस अध्ययन में मुख्य कथानक तो वर्तमान चौबीसी के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिभगवान् का है, अवान्तर कथानक अर्हनक श्रावक का है। दोनों ही कथानक आत्मार्थी जीवों के लिए प्रेरणास्पद है। भगवान् मल्लिनाथ प्रभु का कथानक इस आगमिक . रहस्य को प्रकट करता है कि कोई राजा हो या रंक, महामुनि हो या सामान्य गृहस्थ, कर्म किसी का लिहाज नहीं करते। कपट सेवन के फलस्वरूप मल्ली भगवान् के जीव ने महाबल मुनि के भव में स्त्री नाम कर्म का बंध कर लिया। वहाँ काल के समय काल करके जयन्त विमान में उत्पन्न हुए। जयन्त विमान से चव कर भरत क्षेत्र में मिथिला-नरेश कुंभ की महारानी प्रभावती के उदर से उन्हें कन्या के रूप में जन्म लेना पड़ा, जिनका नाम “मल्ली' रखा गया, जिन्होंने दीक्षा लेकर तीर्थ की स्थापना की। यद्यपि आप तीन लोक के नाथ के रूप में अवतरित हुए पर मामूली तपस्या में माया करने के कारण स्त्री वेद रूप में जन्म लेना पड़ा। इसी मूल कथानक में अवान्तर कथानक प्रियधर्मी दृढ़धर्मी अर्हनक श्रावक का है, जिसकी धार्मिक दृढ़ता के सामने पिशाच.रूप देव को झुकना ही नहीं पड़ा बल्कि श्रावक के पांवों में गिर कर उनसे क्षमायाचना मांगनी पड़ी। नववाँ अध्ययन - इस अध्ययन में इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण न होने से उसका कितना अनिष्टकारी परिणाम होता है, इसका हूबहू चित्रण किया गया है। साथ ही माता पिता की आज्ञा की अवहेलना का कितना दुःखद फल होता है इसका भी निरूपण किया गया है। ... माकन्दी सार्थवाह के दो पुत्र जिन पालित और जिन रक्षित थे, वे व्यापार के निमित्त से ग्यारह बार समुद्री यात्रा कर चुकें। बारहवीं बार समुद्री यात्रा करने के लिए माता-पिता ने उन्हें बहुत मना किया पर वे नहीं माने। यात्रा आरम्भ कर दी पर समुद्र के बीच में उफान आने से उनकी जहाज डूब गई। एक पटिये के सहारे वे एक द्वीप पर पहुंचे। उस द्वीप की अधिपति रत्नादेवी, थी, उसने उन दोनों को अपने साथ भोग-भोगते हुए उसके साथ रहने का कहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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