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________________ [12] RARTHANRNmARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRGarammamARMEmmammnahamnerARARAM anternatarnatarwasenawatantantra S E CXXX शिष्यों को इस बात की जानकारी हुई तो वे सभी शिष्य राजर्षि शैलक के पास आए और सभी आकर साथ विचरने लगे। इस प्रकार शैलक मुनि ने अपने पांच सौ शिष्यों के साथ वर्षों तक संयम का पालन कर सिद्धि गति को प्राप्त किया। ___ इस अध्ययन में चौमासी को दो प्रतिक्रमण करने का स्पष्ट पाठ है, कई भद्रिक महानुभाव कह देते हैं कि यह तो भगवान् अरिष्टनेमि प्रभु के शासन की बात है, उन महानुभावों को जानना चाहिये कि जब भगवान् अरिष्टनेमि प्रभु के शासनवर्ती सयमी साधको के लिए कालोकाल प्रतिक्रमण करना आवश्यक भी नहीं था, उस समय भी उन्होंने दो प्रतिक्रमण किए, तो जहाँ वीर प्रभु के शासन में कालोकाल प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, वहाँ तो दो प्रतिक्रमण आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य मानना चाहिये। छठा अध्ययन - इस अध्ययन में जीव की गुरुता और लघुता का विचार किया गया है। उदाहरण देकर समझाया गया है कि जिस प्रकार तूंबे पर मिट्टी के आठ लेप कर उसे यदि जलाशय में डाला जाय तो वह जलाशय के पैंदे में चला जाता है और ज्यों-ज्यों उसके लेप उतरते जाते हैं। त्यों-त्यों तूंबा हलका होकर ऊपर उठता है एवं आठों लेप हटने पर तूंबा जलाशय पर तैरने लग जाता है। इसी प्रकार जीव आठ कर्मों से युक्त होने पर चतुर्गति में परिभ्रमण करता है और ज्यों ही आठ कर्मों से रहित हो जाता है तब लोक के अग्रभाग (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है। सातवां अध्ययन - इस अध्ययन में धन्य सार्थवाह और उसकी चार पुत्र वधुओं का दृष्टान्त जिसमें पांच-पांच शालिकणों के माध्यम से उनकी योग्यता का अंकन किया गया। उसी प्रकार आगमकार पांच महाव्रतधारी संयमी साधकों को शिक्षा देते हैं - १. जो संयमी साधक संघ के समक्ष पांच महाव्रतों को अंगीकार कर उनको या तो त्याग देता है अथवा उनका उपेक्षा पूर्ण पालन करता है। वह पहली पुत्र वधु के समान इस भव में तिरस्कार का पात्र बनता है और परभव में दुःखी होता है। २. जो संयमी साधक पांच महाव्रत को ग्रहण करके उसे अपनी जीविका का साधक मान कर खान-पान आदि में आसक्त होता है वह दूसरी बहू के समान दासी के तुल्य साधु लिंग धारी मात्र रह जाता है। विद्वानों की दृष्टि में वह उपेक्षणीय होता है। ३. जो संयमी साधक पांच महाव्रत ग्रहण कर उनका यथावत् पालन करता है, वह तीसरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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