________________
तेतली पुत्र नामक चौदहवां अध्ययन - आर्या सुव्रता का पदार्पण १०७ cococccccccccccccccccccccccceeKEEKSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEK 'आशय इस प्रकार है - 'साध्वियों ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, द्वितीय प्रहर में ध्यान किया, तीसरा प्रहर प्रारंभ होने पर शीघ्रता, चपलता और संभ्रम के बिना अर्थात् जल्दी से गोचरी के लिए जाने की उत्कंठा न रख कर निश्चिंत और सावधान भाव से मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन किया, पात्रों और वस्त्रों की प्रतिलेखना की, पात्रों का प्रमार्जन किया तत्पश्चात् पात्र ग्रहण करके अपनी प्रवर्तिका सुव्रता साध्वी के निकट गई। उन्हें वन्दन-नमस्कार किया और भिक्षाचर्या के लिए तेतलीपुर नगर के उच्च, नीच एवं मध्यम घरों में जाने की आज्ञा मांगी।
सुव्रता साध्वी ने उन्हें भिक्षा के लिए जाने की अनुमति दे दी। तत्पश्चात् वे आर्यिकाएँ उपाश्रय से बाहर निकलीं। धीमी, अचंचल और असंभ्रान्त गति से गमन करती हुई चार हाथ सामने की भूमि-मार्ग पर दृष्टि रखे हुए-ईर्यासमिति से नगर में श्रीमन्तों, गरीबों तथा मध्यम परिवारों में भिक्षा के लिए अटन करने लगीं। अटन करती-करती वे तेतली-पुत्र के घर पहुँची।" __. इस वर्णन से स्पष्ट है कि भिक्षार्थ गमन करने से पूर्व साधु-साध्वी को वस्त्र-पात्रादि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करना आवश्यक है, वे जिसकी निश्रा (नेश्राय) में हों, उनकी आज्ञा प्राप्त करनी चाहिए तथा शीघ्र भिक्षाप्राप्ति के विचार से त्वरा या चपलता नहीं करनी चाहिए। भिक्षा के लिए धनी, निर्धन एवं मध्यम वर्ग के घरों में जाना चाहिए। भिक्षा का आगमोक्त समय तृतीय प्रहर है, यह भी इससे स्पष्ट हो जाता है, फिर भी इस विषय में देश-काल का विचार रखना चाहिए।
. . (३०) - एवं खलु अहं अजाओ! तेयलिपुत्तस्स पुव्विं इट्ठा ५ आसि इयाणिं अणिट्ठा ५ जाव दंसणं वा परिभोगं वा, तं तुन्भे णं अजाओ सिक्खियाओ बहुणायाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागर जाव आहिंडह बहूणं राईसर जाव गिहाई अणुपविसह तं अत्थियाई भे अजाओ! केइ कहिंचि चुण्णजोए वा मंतजोगे वा कम्मणजोए वा हियउड्डावणे वा काउड्डावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूइकम्मे वा मूले (वा) कंदे (वा) छल्ली वल्ली सिलिया वा गुलिया वा ओसहे वा भेसजे वा उवलद्धपुव्वे जेणाहं तेयलिपुत्तस्स पुणरवि इट्ठा ५ भवेज्जामि?
शब्दार्थ - चुण्णजोए - चूर्ण योग-स्तंभन आदि हेतु प्रयुक्त किया जाने वाला चूर्ण
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org