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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
पुष्करिणी के तट पर प्रासुक-अचित्त स्नानोदक तथा उबटन से गिरे हुए यवादि पिष्ठी कणों से जीवन निर्वाह करूँगा। उसने इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार किया तथा यावज्जीवन बेले-बेले के निरंतर तप करता रहा।
भगवान् का समवसरण
(२८) तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! गुणसिलए चेइए समोसढे परिसा णिग्गया। तए णं णंदाए पुक्खरिणीए बहुजणो ण्हाय० ३ अण्णमण्णं० जाव समणे ३ इहेव गुणसिलए चेइए समोसढे। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं ३ वंदामो जाव पजुवासामो। एयं मे इहभवे परभवे य हियाए जाव आणुगामियत्ताए भविस्सइ।
शब्दार्थ - आणुगामियत्ताए - अनुगमनार्थ।
भावार्थ - हे गौतम! उस काल, उस समय मैं राजगृह नगर में, गुणशील चैत्य में समवसृत हुआ। वंदन हेतु परिषद् निकली। उस समय नंदा पुष्करिणी में पानी पीते हुए, ले जाते हुए कुछ लोग यों वार्तालाप करने लगे यावत् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यहीं-गुणशील चैत्य में पधारे हैं। हम उनकी वंदना, पर्योपासना करने हेतु जाएँ। ऐसा करना हमारे इस लोक एवं परलोक दोनों के लिए हितप्रद होगा। यह धार्मिक कृत्य परभव में भी हमारे साथ जाएगा। भगवान् की वंदना हेतु द१र का प्रस्थान
(२६) तए णं तस्स ददुरस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए० समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे ३, ० समोसढे। तं गच्छामि णं वंदामि०। एवं संपेहेइ २ त्ता गंदाओ पुक्खरिणीओ सणियं २ उत्तरेइ २ त्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ २ ता ताए उक्किट्ठाए ५ ददुरगईए वीईवयमाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
भावार्थ - बहुत लोगों से यह सुनकर दर्दुर के मन में ऐसा चिंतन संकल्प हुआ - श्रमण
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