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________________ मण्डुक (दर्दुर) ज्ञात नामक तेरहवां अध्ययन - नंद व्याधिग्रस्त ८१ 2000cccccccccccccccccccccccccccccccessccccccccccx कयपुण्णे० कया णं लोया! सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले णंदस्स मणियारस्स। तए णं रायगिहे सिंघाडग जाव बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ ४ - धण्णे णं देवाणुप्पिया! णंदे मणियारे सो चेव गमओ जाव सुहंसुहेणं विहरइ। तए णं से णंदे मणियारे बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्टे धाराहयकलंबगं पि समूससियरोमकूवे परं सायासोक्खमणुभवमाणे विहरइ। शब्दार्थ - कयत्थे - कृतार्थ, धाराहयकलंबगं - मेघों की धारा से आहत कदंब के पुष्प, समूसियरोमकूवे - रोमांचित, सायासोक्खमणुभवमाणे - सातावेदनीय जनित सुख का अनुभव करता हुआ। भावार्थ - नंदा पुष्करिणी में बहुत से लोग स्नान करते हुए, पानी पीते हुए, पानी ले जाते हुए यों कहते - मणिकार श्रेष्ठी नंद धन्य है, कृतकृत्य है। उसने अपने जन्म और जीवन का फल पा लिया। जिसने ऐसी चतुष्कोण युक्त सुंदर पुष्करिणी का निर्माण किया यावत् जिसने पूर्वी तथा अन्य सभी वनखण्डों में यावत् चित्रशाला, पाकशाला, औषधशाला और अलंकारशाला का निर्माण करवाया। जहाँ राजगृह से आए हुए बहुत से लोग सुंदर आसनों, बिछौनों पर बैठते हैं, लेटते हैं तथा पुष्करिणी की शोभा देखते हैं, वार्तालाप करते हैं और आनंद पूर्वक मनोरंजन करते हैं। . वह नंद वास्तव में धन्य, कृतार्थ और कृत पुण्य है। उसने लोक में मनुष्य जन्म और जीवन का फल प्राप्त कर लिया है। उस समय राजगृह नगर में तिराहों, चौराहों यावत् मार्गों पर बहुत से लोग एक दूसरे से बड़ी प्रसन्नता से ऐसा कहते - देवानुप्रिय! नंद मणिकार धन्य है। वहाँ एतद्विषयक पूर्वोक्त वर्णन योजनीय है। नंद मणिकार लोगों से अपनी प्रशंसा सुनकर बहुत ही हर्षित और परितुष्ट होता। जिस प्रकार वर्षा की धार से कंदब के फूल खिल उठते हैं, उसी प्रकार उसके रोम-रोम खिल उठते। नंद व्याधिग्रस्त - (२०) . · तए णं तस्स णंदस्स मणियार सेट्ठिस्स अण्णया कयाइ सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउन्भूया तंजहा - सासे कासे जरे दाहे कुच्छिसूले भगंदरे अरिसा अजीरए दिट्टिमुद्धसूले अगारए। अच्छिवेयणा कण्णवेयणा कंडू दउदरे कोढे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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