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commoccccccccesareaREMIERREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEK में सहयोगी बना रहे, इसीलिए मामूली भोजन का हिस्सा दिया। उसी प्रकार निर्ग्रन्थ मुनि को भी
अनासक्ति भाव से अपने शरीर को आहार-पानी देना चाहिए जिससे इसके द्वारा सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र का समुचित पालन हो सके।
तीसरा अध्ययन :- इस अध्ययन के कथानक का सम्बन्ध जिन प्रवचन पर शंका, कांक्षा या विचिकित्सा न करने से सम्बन्धित है। जो साधक "तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं" आगम वचनों पर श्रद्धा रख कर तदनुसार आचरण करता है, वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। इसके विपरीत वीतराग वचनों में शंका, कांक्षा रखने वाला भटक जाता है।
जिनदत्त पुत्र और सागरदत्त पुत्र दोनों मित्र थे, वे एक समय अमोद-प्रमोद हेतुं उद्यान में गए। वहाँ उन्होंने मयूरी के दो अंडों को देखा। उन्होंने दोनों अंडों को उठाया और अपने-अपने घर लेकर आ गए। सागरदत्त पुत्र शंकाशील था कि इसमें से मयूर निकलेगा अथवा नहीं, अतएव वह बार-बार अंडे को उठाता, उलट-पलट कर कानों के पास ले जाकर बजाता इससे वह अंडा निर्जीव हो गया, उसमे से बच्चा नहीं निकला। इसके विपरीत जिनदत्त पुत्र श्रद्धा सम्पन्न था, अतएव उसने उसे मयूर पालकों को सौंप दिया, मयूरी के द्वारा उस अंडे को सेवने : के कारण कुछ दिनों बाद उसमें से एक सुन्दर मयूर का बच्चा निकला, जिसे जिनदत्त पुत्र ने बाद में नाचने आदि की कला में पारंगत किया। फलस्वरूप उसने खूब अर्थोपार्जन एवं मनोरंजन किया। कथानक सार है - वीतराग वचन में शंका रखना. अनर्थ एवं भवभ्रमण का कारण है। जबकि शंका रहित होकर इसकी साधना आराधना करना मुक्ति के अनन्त सुखों का हेतु है।
चतुर्थ अध्ययन :- इस अध्ययन का कथानक इन्द्रिय निग्रह से सम्बन्धित है। आत्म साधना के पथिकों के लिए इन्द्रिय गोपन करना आवश्यक है। जो संयमी साधक संयम ग्रहण करने के बाद इन्द्रियों का निग्रह नहीं करता है, वह संयम च्यूत होकर अपना संसार बढ़ा लेता है। इसके विपरीत जो संयमी साधक संयम ग्रहण करके इन्द्रियों का निग्रह कर लेते हैं, वे इस भव में भी वंदनीय पूज्यनीय होते हैं और भवान्तर में मोक्ष के अक्षय सुखों को प्राप्त कर लेते हैं।
इस अध्ययन में दो कूर्म (कच्छप) का उदाहरण देकर बतलाया गया कि एक कूर्म ने इन्द्रियों का गोपन किया वह सियार के शिकार से बच गया। दूसरे कूर्म जो चंचल प्रवृत्ति था उसने ज्यों ही अपनी एक-एक करके इन्द्रियों को बाहर निकाला, सियार ने उन्हें खा कर उसे प्राणहीन कर दिया। अतएव संयमी साधक को अपनी इन्द्रियों का निग्रह करना चाहिये।
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