SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 191 SoccaCEEKSHEEEEEEEEEEICEREMIERRIERIENCEBEDESEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEK धन्य सार्थवाह और उसकी पत्नी भद्रा के बड़ी मनोती के बाद एक पुत्र की प्राप्ति हुई। एक दिन भद्रा ने अपने पुत्र को नहला-धुलाकर अनेक आभूषणों से सुसज्जित कर अपने पंथक नामक दास चेटक को खिलाने के लिए दिया। पंथक उसे एक स्थान पर बिठा कर स्वयं खेलने लग गया। उधर विजय चोर गुजरा उसने उस बालक को आभूषणों से लदा देख उठा कर ले गया और गहने उतार कर बालक को अंध कूप में डाल दिया। नगर रक्षकों ने विजय चोर को पकड़ा और कारागार में डाल दिया। इधर कुछ समय बाद किसी के चुगली खाने पर एक साधारण अपराध में धन्य सार्थवाह को भी कारागार में डाल दिया। विजय चोर और धन्य सार्थवाह दोनों एक ही बेड़ी में डाल दिए गए। , धन्यसार्थवाह की पत्नी भद्रा सेठ के लिए विविध प्रकार का भोजन तैयार करके अपने नौकर के साथ कारागार में भेजती। उस भोजन में से विजय चोर ने सेठ से कुछ हिस्सा मांगा तो सेठ ने अपने पुत्र का हत्यारा होने के कारण भोजन देने से इन्कार कर दिया। थोड़ी देर बाद सेठ को मल-मूत्र विसर्जन की बाधा उत्पन्न हुई। तो विजय चोर सेठ के साथ जाने को तैयार नहीं हुआ। वह बोला-तुमने भोजन किया है, तुम्ही जाओ, मैं भूखा प्यासा मर रहा हूँ। मुझे कोई बाधा नहीं है इसलिए मैं नहीं चलता। धन्य विवश होकर बाधा निवृत्ति के लिए दूसरे दिन से अपने भोजन का कुछ हिस्सा विजय चोर को देना चालू कर दिया। दास चेटक ने यह बात घर जाकर सेठ की पत्नी भद्रा को कही, तो वह बहुत नाराज हुई। कुछ दिन पश्चात् सेठ कारागार से छूट कर घर गया तो बाकी सभी लोगों ने तो उसका स्वागत किया, किन्तु पत्नी भद्रा पीठ फेर कर नाराज होकर बैठ गई। धन्य सार्थवाह के नाराजी का कारण पूछने पर भद्रा ने कहा कि मेरे लाडले पुत्र के हत्यारे वैरी विजय चोर को आप आहार-पानी में से हिस्सा देते थे, इससे मैं नाराज कैसे न होऊ? धन्य सार्थवाह ने सेठानी भद्रा की नाराजी का कारण जानकर उसे समझाते हुए कहा कि मैंने उस वैरी को भोजन का हिस्सा तो दिया पर धर्म समझ कर, कर्त्तव्य समझ कर नहीं दिया, प्रत्युत मेरे मल-मूत्र की बाधा निवृत्ति में वह सहायक बना रहे इस उद्देश्य से मैंने उसे हिस्सा दिया। इस स्पष्टीकरण से भद्रा को संतोष हुआ। वह प्रसन्न हुई। ___इस कथानक के माध्यम से प्रभु संयमी साधक को संकेत करते हैं कि जैसे धन्य सार्थवाह ने ममता प्रीति के कारण विजय चोर को आहार नहीं दिया, मात्र अपने शरीर की बाधा निवृत्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy