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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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य संवड्ढियमाणा य से वणसंडा जाया किण्हा जाव णिकुरंबभूया पत्तिया पुफिया
जाव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति ।
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भावार्थ मणिकार श्रेष्ठी ने नंदा पोक्खरिणी की चारों दिशाओं में चार वनखण्ड - पादप समूह रुपवाए, लगवाए। उनकी यथावत् रूप में रक्षा-देख भाल की जाती रही, उन्हें बढ़ाया जाता रहा यावत् वे नील आभायुक्त यावत् पत्रित, पुष्पित एवं फलित होते हुए शोभा पाने लगे।
चित्रशाला (१३)
तए णं णंदे पुरथिमिल्ले वणसंडे एगं महं चित्तसभं करावे (२) अणेगखंभसयसंणिविट्टं पासाइयं ४ । तत्थ णं बहूणि किण्हाणि य जाव सुक्किलाणि य कट्ठकम्माणि य पोत्थकम्माणि य चित्त० लिप्पकम्माणि गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइम० उवदंसिज्जमाणाई २ चिट्ठति ।
शब्दार्थ - सुक्किलाणि - शुक्ल-सफेद, कट्ठकम्माणि - काष्ठ शिल्प, पोत्थकम्माणि - पुस्तकर्म - ताड़ पत्र, भोजपत्र, वस्त्र तथा कागज आदि पर लेखन, लिप्पंकम्माणि - मृत्तिका लेप द्वारा लता आदि की कलापूर्ण संरचना ।
भावार्थ - तब मणिकार श्रेष्ठी नंद ने पूर्वी वनखण्ड में एक बड़ी चित्रशाला बनवाई जो सैकड़ों खंभों पर स्थित थी । वह चित्रशाला बड़ी ही आह्लादजनक, सुंदर और आकर्षक थी । चित्रशाला में उसने काष्ठ पर कृष्ण यावत् शुक्ल वर्ण युक्त बहुविध कला पूर्ण शिल्प कर्म करवाए। ताड़ पत्र, भोज पत्र, वस्त्र एवं कागज पर लेखन करवाया। भित्ति चित्र बनवाए, मिट्टी के लेप से विविध कलाकृतियाँ उत्कीर्ण करवाई । मालाओं के ग्रन्थित, वेष्टित, पूरित, संघातित रूपों में बहुत-सी मनोरंजक कलाकृतियाँ बनवाईं। वे कलाकृतियाँ इतनी सुंदर थीं कि लोग देखते ही रहते थे।
(१४)
तत्थ णं बहूणि आसणाणि य सयणाणि य अत्थुयपच्चत्थुयाइं चिट्ठति। तत्थ बहवे डायट्टा य जाव दिण्णभइभत्तवेयणा तालायरकम्मं करेमाणा विहरंति ।
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