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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
देविं दोच्चं पि तच्चपि एवं वयासी - किण्णं तुमे देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्ग-सरीरा जाव झियायसि?
शब्दार्थ - दोच्चं - दूसरी बार, तच्चं - तीसरी बार।
भावार्थ - तब उन दासियों ने दूसरी एवं तीसरी बार फिर रानी से कहा - देवानुप्रिये! आप क्यों खिन्न, व्यथित एवं उदासीन होती हुई आर्तध्यान में डूबी हैं।
(४६) तए णं सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अभिंतरियाहिं दासचेडियाहिं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्ता समाणी णो आढाइ णो परियाणाइ अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्ठइ। . भावार्थ - उन दासियों द्वारा दूसरी बार-तीसरी बार पुनः पुनः कहे जाने पर भी रानी धारिणी ने उनके कथन का न कोई आदर किया और न ध्यान ही दिया, वह मौन स्थित रही।
(५०) तए णं ताओ अंगपडियारियाओ अभिंतरियाओ दासचेडियाओ धारिणीए देवीए अणाढाइज्जमाणीओ अपरिजाणिज्जमाणीओ तहेव संभंताओ समाणीओ धारिणीए देवीए अंतियाओ पडिणिक्खमंति २ ता, जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! किंपि अज्ज धारिणी देवी ओलुग्गा ओलुग्ग-सरीरा जाव अदृज्झाणोवगया झियायइ।
शब्दार्थ - संभंताओ - संभ्रांत-व्याकुल, समाणिओ - होती हुई।
भावार्थ - रानी द्वारा अपने कथन का इस प्रकार आदर न किए जाने पर वे दासियाँ व्याकुल होती हुई रानी धारिणी के यहाँ से चल कर राजा श्रेणिक के पास आती हैं। हाथ जोड़ कर, सम्मान पूर्वक मस्तक झुकाकर, जय-विजय शब्द द्वारा वर्धापित किया और वे बोली - स्वामिन्! आज महारानी धारिणी देवी अत्यंत व्यथा, आकुलता एवं खिन्नता-युक्त, होकर आर्तध्यान में डूबी हुई हैं।
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