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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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लेती है। प्रस्तुत वर्णन में अलंकारों का इतना सहज समावेश हुआ है कि उनका शब्द और अर्थ के साथ तादात्म्य सिद्ध हो जाता है।
दोहदपूर्ति की चिंता
तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपत्त-दोहला असंपुण्ण-दोहला असंमाणिय-दोहला सुक्का भुक्खा णिम्मंसा ओलुग्गा.
ओलुग्ग-सरीरा पमइल-दुब्बला किलंता ओमंथिय-वयण-णयण-कमला पंडुइयमुही करयलमलियव्व चंपगमाला-णित्तेया दीण-विवण्ण-वयणा जहोचियपुप्फ-गंध-मल्लालंकारहारं अणभिल-समाणी कीडा-रमण-किरियं च परिहावेमाणी दीणा दुम्मणा णिराणंदा भूमिगय-दिट्ठीया ओहय-मण-संकप्पा जाव झियायइ।
शब्दार्थ - अविणिज्जमाणंसि - अविद्यमान रहने पर-पूर्ण न होने पर, असंपुण्ण - असंपूर्ण, असंमाणिय - असम्मानित, सुक्का - शुष्क, भुक्खा - क्षुधित-बुभुक्षा (भूख) जैसी पीडा से व्याकुल, णिम्मंसा - निर्मांस-मांसशून्य की ज्यों दुर्बलता युक्त, ओलुग्गा - चिंतातिशय से जीर्ण, पमइल-दुब्बला - म्लान एवं अशक्त, किलंता - व्यथा से क्लान्तग्लानियुक्त, ओमंथिय - नीचे किए हुए, वयण - वदन-मुख, पंडुइयमुही - पीले पड़े मुख युक्त, करयलमलियब्ध - हथेली से मसली हुई सी, णित्तेया - निस्तेज-दीप्ति रहित, दीण - दैन्ययुक्त, विवण्ण - चिंता से फीका पड़ा हुआ, जहोचिय - यथोचित, अणभिलसमाणी - अभिलाषा न करती हुई, कीडारमणकिरियं - मन बहलाव की क्रियाएँ, परिहावेमाणी - त्याग करती हुई, दुम्मणा - दुःखित मन युक्त, भूमिगय-दिट्ठिया - भूमि पर दृष्टि गडाए हुए, ओहय - अपहत-नष्ट, झियायइ - आर्तध्यान में निमग्न हो गई।
भावार्थ - रानी धारिणी ने अपने दोहद को अपूर्ण एवं असंपन्न देखा तो वह अत्यधिक व्यथित हुई। उसका मुँह सूख गया। वह शरीर में इतनी दुर्बलता महसूस करने लगी मानो उसकी देह में मांस ही न रहा हो। उसका शरीर चिंतातुर, जीर्ण एवं म्लान हो गया। उसका मुँह और
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