SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र कयबलिकम्मा स्नान सम्बन्धी संपूर्ण विधि पूर्ण की, पायच्छित्ता - प्रायश्चित्त, अप्पमहग्घअल्पभार - बहुत मूल्य, हरियालिय - हरितालिका- दूर्वा, मुद्धाणा मस्तक, सएहिं अपने, गिहेर्हितो - घरों से, भवण-वडेंसग-दुवारे उत्तम भवन के द्वार पर, एगयओ मिलंति - एक साथ मिलते हैं, वद्धावेंति - वर्धापित करते हैं (बधाई देते हैं), अच्चिय-अर्चित, वंदियवंदित, पूइय - पूजित, माणिय - मानित, सक्कारिय - सत्कारित, सम्माणिय- सम्मानित, पत्तेयं - प्रत्येक, पुव्वण्णत्थेसु - पूर्वन्यस्त- पहले से ही रखे हुए । भावार्थ राजा श्रेणिक के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा आमंत्रित किए जाने पर स्वप्न पाठक अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने स्नान सम्बन्धी संपूर्ण विधि पूर्ण की। मंगलोपचार किए। शरीर पर आभरण धारण किए। दूर्वा एवं श्वेत सरसों आदि द्वारा संपादित शुभोपचार पूर्वक वे अपने-अपने घरों से निकले। राजगृह नगर के बीच से होते हुए राज महल के द्वार पर पहुँचे। सब एक साथ होकर महल के अंदर प्रविष्ट हुए, सभा भवन में आए, जय-विजय शब्दों द्वारा राजा को वर्धापित किया। राजा ने उनका अर्चन, वंदन, पूजन एवं मान-सम्मान किया। वे स्वप्न पाठक पहले से रखे हुए श्रेष्ठ आसनों पर बैठे । ५० - Jain Education International - (३४) तणं सेणिय राया जवणियंतरियं धारिणि देविं ठवेइ २ त्ता पुप्फ-फलपडिपुण्ण-हत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया धारिणी देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि जाव महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं एयस्स णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव सस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मण्णे कल्लाणे फलवित्ति विसेसे भविस्सइ ? शब्दार्थ जवणियंतरियं - पर्दे के पीछे, ठवेड़ - बिठलाता है, परेणं- अत्यधिक, पडिपुण्ण - परिपूर्ण, तारिसगंसि - उस प्रकार के, भविस्सइ - होगा । भावार्थ तदनंतर राजा श्रेणिक ने रानी धारिणी को पर्दे के पीछे बिठलाया। फिर अपने हाथों में पुष्प और फल लेकर अत्यंत नम्रता पूर्वक उन स्वप्न- पाठकों को महास्वप्न के बारे में ज्ञापित किया और पूछा कि इस उत्तम, प्रशस्त महास्वप्न का कैसा शुभ एवं कल्याणकारी फल होगा? - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy