SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मल्ली नामक आठवां अध्ययन - प्रव्रज्या-समारोह (१७८) तणं मल्लिस्स अरहओ णिक्खममाणस्स अप्पेगइया देवा मिहिलं आसिय जाव अब्भिंतरवास विहिगाहा जाव परिधावति । भावार्थ जब अरहंत मल्ली प्रव्रज्या स्वीकार हेतु जा रहे थे, तब कतिपय देव मिथिला राजधानी में भीतर - बाहर विविध कार्य करने में प्रयत्नशील थे । Jain Education International ४२६ (१७९) तए णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव असोगवर पायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ० आभरणालंकारं० पभावई पड़िच्छइ । भावार्थ - फिर अरहंत मल्ली सहस्राम्रवन नामक उद्यान में, अशोक वृक्ष के नीचे आए। शिविका से उतरे। पहने हुए समस्त आभरण उतारे, रानी प्रभावती ने उन्हें ग्रहण किया। (१८० ) तणं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ । तए णं सक्के ३ मल्लिस्स केसे पडिच्छइ (२त्ता) खीरोदगसमुद्दे साहर (पक्खिव ) इ । तए णं मल्ली अरहा णमोऽत्थुणं सिद्धाणं-तिकट्टु सामाइय (च) चारित्तं पडिवज्जइ । शब्दार्थ - खीरोदगसमुद्दे - क्षीर सागर में । भावार्थ - अरहंत मल्ली ने स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया। देवराज शक्र ने मल्ली के केशों को ग्रहण किया तथा क्षीर सागर में प्रक्षिप्त किया। (१८१ ) जं समयं च णं मल्ली अरहा चरित्तं पडिवज्जइ तं समयं च णं देवाणुं माणुसाण य णिग्घोसे तुरियणिणाए गीयवाइयणिग्घोसे य सक्कस्सवयणसंदेसेणं णिलुक्के For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy