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________________ ४१८ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र (१५३) तं जीयमेयं तीयपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं (३) अरहंताणं भगवंताणं णिक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलित्तए तंजहा - तिण्णेव य कोडिसया अट्ठासीइं च होंति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा इंदा दलयंति अरहाणं॥ शब्दार्थ - जीयं - परंपरागत मर्यादा-आचार, तीय - अतीत-भूतकाल, पच्चुप्पण्ण - वर्तमान, अणागयाणं - भविष्य। भावार्थ - वर्तमान, भूत और भविष्य के होने वाले शक्रेन्द्रों का यह परम्परागत मर्यादानुगत आचार है कि वे दीक्षा लेते हुए अरहंत भगवंतों को दान देने हेतु इस रूप में अर्थ संपदा प्राप्त कराएं। गाथा - तीन अरब अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएं इन्द्र अरहंतों को प्राप्त कराते हैं। (१५४) एवं संपेहेइ, संपेहित्ता वेसमणं देवं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं व्रयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे २ भारहे वासे जाव असीइं च सयसहस्साई दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए कुंभगभवणंसि इमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहराहि २ ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि। शब्दार्थ - संपेहेइ - संप्रेक्षण, चिंतन, अत्थसंपयाणं - अर्थ-संपत्ति-धन, साहराहि - प्राप्त कराओ-पहुँचाओ। भावार्थ - शक्रेन्द्र ने इस प्रकार चिंतन किया- उसने वैश्रमण देव को बुलाया और कहादेवानुप्रिय! जंबूद्वीप में, भारत वर्ष में यावत् मल्ली अरहंत के दीक्षा लेने के प्रसंग को उद्दिष्ट कर तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएं देनी हैं। इसलिए देवानुप्रिय! जंबूद्वीप के अन्तर्गत, भारत वर्ष में, राजा कुंभ के भवन में, यह धन पहुंचाने की व्यवस्था करो एवं शीघ्र ही मेरे आज्ञानुरूप किए जाने की सूचना दो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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