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प्रथम अध्ययन - आर्य जम्बू
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उठेइ - उठते हैं, उहित्ता - उठकर, तिक्खुत्तो - तीन बार, आयाहिणं-पयाहिणं - आदक्षिणप्रदक्षिणा करके जुड़े हुए हाथों को दाहिने ओर से घुमाते हुए, वंदइ - वन्दना करते हैं, णमंसइ- नमस्कार करते हैं, वंदित्ता - वन्दना कर, णमंसित्ता - नमस्कार करके, णच्चासण्णेन अति आसन्न-समीप, णाइदूरे - न अधिक दूर, सुस्सूसमाणे - शुश्रूषा-सुनने की इच्छा करते हुए, णमंसमाणे - नमन करते हुए, अभिमुहे - अभिमुख, पंजलिउडे - हाथ जोड़े हुए, विणएणं - विनय पूर्वक, पज्जुवासमाणे - पर्युपासना-अभ्यर्थना करते हुए, एवं - इस प्रकार, वयासी - बोले।
भावार्थ - आर्य जंबू गुरुवर आर्य सुधर्मा स्वामी से आगमों के पाँच अंग श्रवण कर चुके थे, उनके मन में छठे अंग के श्रवण करने की श्रद्धा पूर्वक इच्छा उत्पन्न हुई। क्रमशः वह तीव्र हुई, शंकाजनित जिज्ञासा योग्य अर्थ के प्रति उनके मन में विशेष उत्सुकता उत्पन्न हुई। वे अपने स्थान से उठकर आये। उन्होंने तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा पूर्वक यथा विधि आर्य सुधर्मा स्वामी को वन्दन-नमन किया। उनके समीप उपयुक्त स्थान पर स्थित हुए। हाथ जोड़े हुए, श्रवण करने की इच्छा लिये हुए, पुनः प्रणाम कर उनसे बोले। ... विवेचन - जैनागमों का प्रयोजन-लक्ष्य प्राणी मात्र को, कोटि-कोटि मानवों को धार्मिक तत्त्वों से, सदाचरण से अवगत कराना तथा उस ओर प्रेरित करना है, यही कारण है, वहाँ ऐसी शैली को अपनाया गया है, जिससे आगमों का संदेश श्रोताओं और पाठकों के अन्तः स्थल तक सहज रूप में पहुँच सके। भाव को स्पष्ट करने हेतु वहाँ एक ही बात प्रायः अनेक समानार्थ सूचक शब्दों द्वारा कही जाती हैं, जिससे श्रोताओं या पाठकों के समक्ष उस घटना या उस वृतान्त का एक विशद भाव चित्र उपस्थित हो जाता है। बाह्य दृष्टि से देखने पर यह पुनरुक्ति जैसा प्रतीत होता है, पर भावात्मक दृष्टि से वास्तव में उसकी अपनी सार्थकता एवं उपयोगिता है।
प्रस्तुत प्रसंग में आर्य जंबूस्वामी के जिज्ञासा मूलक मनोभाव को प्रकट करने के लिए श्रद्धां, संशय एवं कौतुहल के जात, संजात और उत्पन्न एवं समुत्पन्न होने का उल्लेख हुआ है। जात का अर्थ पैदा होना है। जात से पूर्व ‘सम्-सं' उपसर्ग लगाने से संजात शब्द बनता है। 'सम-सं' उपसर्ग सम्यक् या भलीभाँति का सूचक है। इस प्रकार संजात का अर्थ भलीभाँति पैदा होना है। उत्पन्न होने का अर्थ प्रादुर्भूत होना है। समुत्पन्न का अर्थ सम्यक् रूप में प्रादुर्भूत है।
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