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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
मल्लदिण्णे कुमारे अण्णया कयाई चित्तगरसेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासीतुब्भे णं देवाणुप्पिया! मम चित्तसभं० तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव मम संडासगं छिंदावे २ ता णिव्विसयं आणवेइ, तं एवं खलु (अहं) सामी ! मल्लदिण्णे णं कुमारेणं णिव्विसए आणत्ते ।
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कहा
स्वामी! राजकुमार
मेरे लिए एक
भावार्थ - यह सुनकर युवा चित्रकार ने राजा अदीनशत्रु से मल्लदिन्न ने एक बार किसी समय चित्रकारों को बुलाया। उनसे कहा चित्रशाला तैयार करो (यहाँ वह सब पाठ ग्राह्य है, जो पहले आया है) यावत् राजकुमार ने मेरे अंगूठे और तर्जनी अंगुली को कटवा दिया और मुझे निर्वासन की आज्ञा दे दी। स्वामी! मेरे निर्वासन का यह वृत्तांत है ।
(१०६)
तणं अदीणसत्तु राया तं चित्तगरं एवं वयासी से केरिसए णं देवाणुप्पिया तु मल्लीए वि० तहाणुरूवे रूवे णिव्वत्तिए ? तए णं से चित्तगरे कक्खंतराओ चित्तफलयं णीणे २ त्ता अदीणसत्तुस्स उवणेड़ २ त्ता एवं वयासी एस णं सामी ! मल्लीए वि० तयाणुरूवस्स रूवस्स केइ आगार भाव पडोयारे णिव्वत्तिए णो खलु सक्का केणइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवरकण्णाए तयाणुरूवे रूवे णिव्वत्तित्तए ।
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शब्दार्थ - णीणेइ - निकालता है, पडोयारे - प्रकटित ।
भावार्थ राजा अदीनशत्रु ने चित्रकार से कहा- देवानुप्रिय ! तुमने राजकुमारी मल्ली का उसके अनुरूप चित्र कैसा बनाया? चित्रकार ने यह सुनकर अपनी कांख से चित्रमयी काष्ठ पट्टिका निकाली और राजा के समक्ष रखी। उसने राजा से निवेदन किया विदेह की उत्तम राजकुमारी मल्ली की आकृति और उसकी भाव भंगिमा का यह किंचित् मात्र प्रकटीकरण है । उसके स्वरूप का यथावत् चित्रण तो न कोई देव यावत् न मानव आदि ही कर सकता है ।
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तणं (से) अदीणसत्तु (राया) पंडिरूवजणियहासे दूयं, सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी - तहेव जाव पहारेत्थ गमणाए (५) ।
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