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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
. (८०) तए णं से रुप्पी कुणालाहिवई सुवण्णगारसेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायमग्गमोगाढंसि पुप्फमंडवंसि णाणाविहपंच वण्णेहिं तंदुलेहिं णयरं आलिहह तस्स बहुमज्ङ्ग प्रभाए पट्टयं रएह जाव पच्चप्पिणंति।
शब्दार्थ - सुवण्णगारसेणिं - स्वर्णकारवृन्द, तंदुलेहिं - चावलों द्वारा, आलिहह - आलेखन या चित्रण करो, पट्टयं - पाट-बाजोट, रएह - रचना करो। ___ भावार्थ - कुणालाधिपति रुक्मी ने स्वर्णकारों को बुलाया और कहा - देवानुप्रियो! शीघ्र ही राजमार्ग में अवस्थित पुष्प मण्डप में नाना प्रकार के पाँच वर्णों के चावलों से नगर का आलेखन चित्रण करो। उसके बीचोंबीच एक पाट बनाओ यावत् स्वर्णकारों ने वैसा कर राजा को ज्ञापित किया।
(८१) तए णं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थिखंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भडचडगर जाव अंतेउरपरियालसंपरिवुडे सुबाहुं दारियं पुरओ कटु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुप्फमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ २ त्ता पुप्फमंडवे अणुप्पविसइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे।
भावार्थ - तदनंतर कुणालाधिपति उत्तम हाथी पर सवार हुआ। चतुरंगिणी सेना तथा अनेक योद्धाओं तथा अतःपुरवर्ती परिजनों से घिरा हुआ, सुबाहुकुमारी के पीछे-पीछे राजमार्ग में निर्मित पुष्प मण्डप के निकट आया। हाथी से नीचे उतरा। पुष्पमण्डप में प्रविष्ट हुआ। पूर्व दिशा की ओर मुख कर, उत्तम सिंहासन पर आसीन हुआ।
(८२) तए णं ताओ अंतेउरियाओ सुबाहुं दारियं पट्टयंसि दुरूहेंति २ त्ता सेयापीयएहिं कलसेहिं पहाणेति २ त्ता सव्वालंकार विभूसियं करेंति २ ता पिउणो पायंवंदिउं उवणेति। तए णं सुबाहू दारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता
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