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________________ मल्ली नामक आठवां अध्ययन - कोसल नरेश प्रतिबुद्धि ३७७ द्वारा मैं लवणसमुद्र पर जहाँ तुम थे, आया। आकर तुम्हारे लिए उपसर्ग उत्पन्न किया। तुम न भयभीत हुए और न त्रस्त ही। तब मैंने जाना कि देवराज शक्र ने जो कहा था, वह सत्य है। मैंने उस ऋद्धि और पराक्रम को देखा जो तुम्हें प्राप्त है। देवानुप्रिय! मैं तुम से क्षमा मांगता हूँ। तुम क्षमा करने में समर्थ हो। फिर ऐसा नहीं करूँगा। यों कह कर वह हाथ जोड़ कर अर्हन्नक के पैरों में गिर पड़ा एवं बार-बार क्षमायाचना करने लगा। उसने क्षमायाचना कर अर्हन्नक को दो । कुण्डल युगल भेंट किये तथा जिस दिशा से आया था, उसी ओर वापस लौट गया। (७१) तए णं से अरहण्णए णिरुवसग्गमिति कट्ठ पडिमं पारेइ। तए णं ते अरहण्णगपामोक्खा जाव वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयं लंबेंति २ त्ता सगडिसागडं सजेति २ ता तं गणिमं च ४ सगडि० संकामेंति २ ता सगडी० जोएंति २ त्ता जेणेव मिहिला० तेणेव उवागच्छंति २ ता मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुजाणंसि ‘सगडीसागडं मोएंति २ ता मिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडं कुंडल जुयलं च गेण्हंति २ त्ता मिहिलाए रायहाणीए अणुप्पविसंति २ ता जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव महत्थं दिव्वकुंडल जुयलं उवणेति। शब्दार्थ - णिरुवसग्गं - उपसर्ग रहित, पोयपट्टणे - बंदरगाह, गणिमं धरिमं मेज्जं परिच्छेज्ज - गणना द्वारा, तराजू द्वारा, गज आदि के माप द्वारा तथा परिच्छेद्य (विभाजन) द्वारा बेचने योग्य, संकामेंति - रखते हैं, अग्गुजाणंसि - श्रेष्ठ उद्यान में। .. भावार्थ - तदुपरांत जब अर्हन्नक ने जाना कि उपसर्ग मिट गया है तो उसने प्रतिमा को पारा। फिर अर्हनक आदि व्यापारी जब दक्षिण की अनुकूल हवा चलने लगी तो वे वहाँ से आगे बढ़ते हुए गंभीर नामक बंदरगाह पर आए। वहाँ आकर अपने जहाज को रोका-लंगर डाल दिए। फिर वे मिथिला नगरी की ओर चले तथा राजधानी मिथिला के बहिर्वर्ती श्रेष्ठ उद्यान में अपने गाड़े-गाड़ियों को खोला। फिर बहुमूल्य राजा के योग्य विपुल, महत्त्वपूर्ण भेंट तथा कुंडल युगल को लिया। लेकर राजधानी मिथिला में प्रविष्ट हुए। राजा कुंभ के समक्ष उपस्थित हुए। हाथ जोड़ कर मस्तक नवा कर वे महत्त्वपूर्ण रत्नादि उपहार तथा एक कुण्डल युगल राजा को भेंट किए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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