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________________ मल्ली नामक आठवां अध्ययन - कोसल नरेश प्रतिबुद्धि ३७५ 44 + . (६६) - तए णं से पिसायरूवे अरहण्णगं जाहे णो संचाएइ णिग्गंथाओ० चालित्तए वा० ताहे उवसंते जाव णिविण्णे तं पोयवहणं सणियं २ उवरिं जलस्स ठवेइ २ त्ता तं दिव्वं पिसायरूवं पडिसाहरइ २ ता दिव्वं देवरूवं विउव्वइ, विउव्वइत्ता अंतलिक्खपडिवण्णे सखिंखिणियाइं जाव परिहिए अरहण्णगं समणोवासगं एवं वयासी शब्दार्थ - संचाएइ - समर्थ होता है, अंतलिक्खपडिवण्णे - अंतरिक्षप्रतिपन्ने - आकाशस्थित, सखिंखिणियाई.- धुंघुरुओं से। . . भावार्थ - पिशाच रूपी देव जब अर्हनक को निर्ग्रन्थ प्रवचन से - जिनधर्माराधना से चलित, क्षुभित और विपरिणत नहीं कर सका तो वह उपशांत या निर्विन-निर्वेदयुक्त या उपसर्ग से निवृत हो गया। उसने जहाज को धीरे-धीरे पानी के ऊपर रखा। देवलब्धि जनित पिशाच रूप का प्रतिसंहनन किया-उसे वापस अपने आप में समेटा। विक्रिया द्वारा दिव्य देव रूप धारण किया। वह अंतरिक्ष में स्थित हुआ। उस द्वारा धारण किए हुए वस्त्रों में घुघरु छमछमा रहे थे। वह श्रमणोपासक अर्हनक से इस प्रकार बोला। ___. . (७०) हं भो अरहण्णगा! धण्णोऽसि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले जस्स णं तव णिग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, एवं खलु देवाणुप्पिया! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए बहूणं देवाणं मज्झगए महया २ सद्देणं एवं आइक्खइ ४ - एवं खलु जंबुद्दीवे २ भारहे वासे चंपाए णयरीए अरहण्णए समणोवासए अभिगय जीवाजीवे णो खलु सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा ६ णिग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा जाव विपरिणामित्तए वा। तए णं अहं देवाणुप्पिया! सक्कस्स देविंदस्स णो एयमद्वं सद्दहामि०। तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए० गच्छामि णं अरहण्णयस्स अंतियं पाउन्भवामि जाणामि ताव अहं अरहण्णगं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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