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________________ ३७४ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र शब्दार्थ - सद्धा - मनोगत संकल्प, णिप्फंदे - निष्पंद-अचंचल। भावार्थ - तब श्रमणोपासक अर्हत्रक ने मन ही मन इस पर चिंतन करते हुए कहा - देवानुप्रिय! मैं अर्हनक नामक श्रमणोपासक हूँ। मैंने जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त किया है। मुझे देव, दानव आदि कोई भी निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित, क्षुभित या विपरिणतविपरीत परिणाम युक्त नहीं कर सकता। तुम्हारे मन में जैसा भी संकल्प हो, तुम करो। यों कहकर वह निर्भय रहा। उसके मुंह पर और आंखों के वर्ण पर कोई भी भय अंकित नहीं हुआ। उसके मन में दीनता और विमनस्कता व्याप्त नहीं हुई। वह निश्चल, अचंचल रहा, चुप रहा, धर्मध्यान में संलग्न रहा। (६७) तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं समणोवासगं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-हं भो अरहण्णगा! जाव अदीण-विमणमाणसे णिच्चले णिप्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहर। ___भावार्थ - तदन्तर उस पिशाचरूप धारी देव में अर्हनक को दूसरी बार एवं तीसरी बार पहले की तरह चुनौती दी किन्तु अर्हनक पूर्ववत् अदीन, अविमनस्क, निश्चल और सुस्थिर रहा तथा बिना कुछ बोले, शांत भाव से धर्मध्यान में लीन रहा। (६८) - तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं धम्मज्झाणोवगयं पासइ, पासित्ता बलियतरागं आसुरुत्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गिण्हइ २ त्ता सत्तट्टतलाई जाव अरहण्णगं एवं वयासी-हं भो अरहण्णगा! अपत्थियपत्थिया! णो खलु कप्पइ तव सीलव्वय तहेव जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ। शब्दार्थ - बलियतरागं - अत्यधिक, आसुरुत्ते - तत्क्षण क्रोधाविष्ट । भावार्थ - तत्पश्चात् पिशाचरूपधारी देव ने श्रमणोपासक अर्हन्नक को इस रूप में देखा। वह तत्क्षण अत्यंत क्रोधित हुआ। उसने जहाज को दो अंगुलियों द्वारा उठाया और उसे सातआठ मंजिल ऊपर ले गया, यावत् अर्हन्नक को यों कहा - अरे मौत को चाहने वाले अर्हन्नक! शीलव्रत, गुणव्रत, त्याग, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से चलित होना तुम्हें नहीं कल्पता यावत् उस द्वारा पहले की तरह दी गई धमकी के बावजूद अर्हनक धर्म ध्यान में लीन रहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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