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________________ मल्ली नामक आठवां अध्ययन - कोसल नरेश प्रतिबुद्धि ३६६ अंजणगिरिस्स अग्गि जालुग्गिलंतवयणं आऊसिय अक्खचम्मउइट्ठगंडदेसं चीण चि(पिड)मिढवंकभग्गणासं रोसागयधमधमेंतमारुयणिटुरखरफ-रुसझुसिरं ओभुग्गणासियपुडं घाडुब्भडरइयभीसणमुहं उद्धमुहकण्ण सक्कुलियमहंत विगयलोमसंखालगलंबंत चलियकण्णं पिंगल दिप्पंतलोयणं भिउडितडि (य) णिडालं णरसिरमाल परिणद्धचिंधं विचित्त गोण ससुबद्धपरिकरं अवहोलंतपुप्फुयायंत सप्पविच्छुय गोधुंदरणउलसरडविरइयविचित्त वेयच्छमालियागं भोगकूरकण्हसप्पधमधमेतलंबंतकण्णपूरं मज्जारसियाललइयखंधं दित्तघूघूयंतघूयकय कुंतल सिरं घंटारवेण भीमं भयंकरं कायर जणहिययफोडणं दित्तमहासं विणिम्मुयंतं वसारुहिरपूयमंसमलमलिण पोच्चडतणुं उत्तासणयं विसालवच्छं पेच्छंता भिण्णणहमुहणयण कण्णवरवधचित्त कत्तीणिवसणं सरसरुहिरगयचम्मविययऊसवियबाहु जुयलं ताहि य खरफरुस असिणिद्ध अणिट्ठदित्त असुभ अप्पियकंत वग्गूहि य तज्जयंतं पासंति। .. शब्दार्थ - वरमासरासि - उत्तम उर्द की राशि, सुप्पणहं - सूप के समान चौड़े नखों से युक्त, असिलिट्ठ - अश्लिष्ट-अलग-अलग, विकोसिय - म्यान रहित, रोसागय - क्रोध जनित, मारुय - श्वास की हवा, झुसिरं - रंध्र या गुहा, णासियपुडं - नथुने, घाहुब्भड -. घात करने में प्रबल, सक्कुलिय - कान का बाह्य भाग, णिडालं - ललाट, गोणस - गोनस जाति. के सर्प, अवहोलंत - इधर-उधर चलायमान होते हुए, गोध - गोह, उंदर - चूहा, सरड- गिरगिट, भोगकूर - भयानक फण युक्त, धमधमेंत - फुकारते हुए, मज्जार - मार्जारबिलाव, धूय - घुग्घू या उल्लू, पोच्चड तणुं - पुते हुए देह युक्त। भावार्थ - तदनंतर अर्हनक के अतिरिक्त अन्य सांयात्रिक-नौकास्थित व्यापारियों ने एक बहुत बड़े पिशाच को देखा। उसकी जघाएं ताड़ के समान लंबी थी। उसकी बाहुएं आकाश को छूती हुई सी थी। मस्तक फटा हुआ सा था। वह भौरों के समूह, उड़द के ढेर और भैंसे के समान काला था। जल से भरे मेघों के सदृश श्याम वर्ण का था। उसके नाखून सूप के समान थे। उसकी जिह्वा हल के फाल जैसी थी। उसके होठ लम्बे थे। उसका मुख सफेद, गोलाकार अलग-अलग स्थित तीक्ष्ण, स्थिर, मोटी और टेढ़ी दाढ़ों से युक्त था। उसकी दुहरी जीभ के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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