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________________ मल्ली नामक आठवां अध्ययन - कोसल नरेश प्रतिबुद्धि ३६१ शुल्क देना पड़ता था। अन्य स्थलों में भी अनेक बार ऐसा ही पाठ आता है। यह कन्या विक्रय का ही एक रूप था जो हमारे समाज में कुछ वर्षों पूर्व तक प्रचलित था। अब पलड़ा पलट गया है और कन्या विक्रय के बदले वर-विक्रय की घृणित प्रथा चल पड़ी है। यों यह एक सामाजिक प्रथा है किन्तु धार्मिक जीवन पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ता है। साधारण आय से भी मनुष्य अपनी उदरपूर्ति कर सकता है और तन ढंक सकता है। उसके लिए अनीति और अधर्म से अर्थोपार्जन की आवश्यकता नहीं, किन्तु वर खरीदने अर्थात् विवश होकर दहेज देने के लिए अनीति और अधर्म का आचरण करना पड़ता है। इस प्रकार इस कुप्रथा के कारण अनीति और अधर्म की समाज में वृद्धि होती है। (५०) तए णं से दूए पडिबुद्धिणा रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्टे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जेणेव सएं गिहे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटे आसरहं पडिकप्पावेइ २ त्ता दुरूढे जाव हयगयमहयाभडचडगरेणं साएयाओ णिग्गच्छइ २ त्ता जेणेव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। शब्दार्थ - आसरहे - अश्वरथ, पडिकप्पावेइ - तैयार कराता है, साएयाओ - साकेत नगर से। ___भावार्थ - राजा प्रतिबुद्धि द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर दूत बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने राजा की आज्ञा शिरोधार्य की। वह अपने घर आया, जहाँ चार्तुघंट-चारों ओर घंटाओं से युक्त अश्वरथ था। रथ को तैयार कराया। उस पर आरूढ हुआ, यावत् बहुत से हाथी, घोड़े, योद्धा समूह आदि से घिरा हुआ वह साकेत नगर से रवाना हुआ, विदेह जनपद-मिथिला राजधानी की ओर चलता गया। विवेचन - श्रीदामकाण्ड की चर्चा में से मल्ली कुमारी के अनुपम सौन्दर्य की बात निकली। राजा को मल्ली कुमारी के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। इस अनुराग का तात्कालिक निमित्त श्रीदामकाण्ड हो अथवा मल्ली के सौन्दर्य का वर्णन, किन्तु मूल और अन्तरंग कारण पूर्वभव की प्रीति के संस्कार ही समझना चाहिए। मल्ली कुमारी जब महाबल के पूर्वभव में थी तब उनके छह बाल्यमित्रों में इस भव का यह प्रतिबुद्धि राजा भी एक था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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