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________________ ३५४ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र __शब्दार्थ - सरित्तयं - अपने सदृश त्वचा युक्त, सरिव्वयं- अपने समान वय, मत्तयच्छिड्डेमस्तक में छेद युक्त, कल्लाकल्लिं - हर रोज, पउमप्पलपिहाणं - लाल और नीले कमल के ढक्कन से युक्त, पिंडं - कवल-ग्रास। भावार्थ - तदनन्तर राजकुमारी मल्ली ने मणिखचित पीठिका के ऊपर अपने जैसी, अपने सदृश त्वचा, वय, लावण्य, यौवन एवं गुण युक्त स्वर्णमयी प्रतिमा बनवाई, जो मस्तक पर छिद्र युक्त थी, जिस पर लाल और नीले कमल का ढक्कन था। वह विपुल अशन-पान-खाद्यस्वाद्य आदि का जो आहार करती थी, उस मनोज्ञ आहार का एक कवल उस स्वर्णमयी प्रतिमा के मस्तक के छेद में डलवाती रहती। (३५) तए णं तीसे कणगामईए जाव मत्थयछिड्डाए पडिमाए एगमेगंसि पिंडे पक्खिप्पमाणे २ तओ गंधे पाउन्भवइ से जहाणामए अहिमडेइ वा जाव एत्तो अणि?तराए अमणामतराए (चेव)। - शब्दार्थ - अणि?तराए - अनिष्टतर-अत्यंत अनिष्ट, अप्रिय, अहिमडेइ - अहिमृत-मरे हुए साँप के कलेवर, अमणामतराए - अमनोरम-मन को बुरी लगने वाली। ___ भावार्थ - उस स्वर्णमयी, यावत् मस्तक पर छिद्रयुक्त प्रतिमा में एक-एक ग्रास डालते रहने से उसमें ऐसी दुर्गंध पैदा हुई, जैसी मरे हुए साँप के कलेवर में होती है, यावत् वह गंध अनिष्टतर-अत्यंत अप्रिय एवं अमनोरम-मन को बुरी लगने वाली थी। कोसल नरेश प्रतिबुद्धि (३६) तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसला णामं जणवए। तत्थ णं सागेए णामं णयरे। तस्स णं उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं (महं एगे) महेगे णागघरए होत्था दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संणिहियपाडिहेरे। शब्दार्थ - सच्चं - कामनापूरक होने के कारण सत्य, सच्चोवाए - सत्यावपातअभिलाषाओं को सार्थकता देने वाला, संणिहियपाडिहेरे - सन्निहितप्रातिहार्य-देवाधिष्ठित। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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