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________________ शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - मदोन्मत्त शैलक का कोप ३०३ ४६६ साधु जानते थे कि - हम सब की अपेक्षा से पंथकजी इनकी सेवा में विशेष योग्य हैं तथा पंथकजी भी यही (कि - इस प्रसंग पर मेरा रहना ही ठीक है) जानते थे अतः पंथकजी ही रहे। तए णं से पंथए सेलगस्स २ सेजा संथारउच्चारपासवण खेल्लसिंघाणमत्त - ओसहभेसजभत्तपाणएणं अगिलाए विणएणं वेयावडियं करेइ। तए णं से सेलए अण्णया कयाइ कत्तियचाउम्मासियंसि विउलं असणं ४ आहारमाहारिए सुबहुं च मजपाणयं पीए पुव्वावरण्ह कालसमयंसि सुहप्पसुत्ते। . शब्दार्थ - कत्तियचाउम्मासियंसि - कार्तिक चौमासी के दिन। भावार्थ - पंथक अनगार शैलक के शय्या संस्तारक, उच्चार प्रस्रवण, श्लेष्म, नासिका मल इत्यादि विषयक तथा औषध, भेषज, आहार-पानी आदि से संबद्ध सब प्रकार का वैयावृत्य अग्लान भाव से, विनय पूर्वक करता रहा। एक बार शैलक ने कार्तिक चौमासी के दिन अत्यधिक अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य आदि का आहार किया। अधिक मात्रा में आसव पान किया तथा दिवस के चौथे प्रहर में संध्या काल के समय ही वह सुखपूर्वक सो गया। - मदोन्मत्त शैलक का कोप (६६) तए णं से पंथए कत्तिय-चाउम्मासियंसि कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिक्कंते चाउम्मासियं पडिक्कमिडं कामे सेलगं रायरिसिं खामणट्ठयाए सीसेणं पाएसु संथट्टेइ। तए णं से सेलए पंथएणं सीसेणं पाएसु संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उट्टेइ २ त्ता एवं वयासी-से केस णं भो! एस अपत्थिय पत्थिए जाव वजिए जे णं ममं सुहपसुत्तं पाएसु संघट्टेइ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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