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________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र पारस्परिक संबंध या ऐक्य का आधार उनका महाव्रत रूप संयम जीवितत्य है, क्या शैलक के प्रति उनका यह व्यवहार शिथिलाचार का पोषण नहीं है? ३०२ इसका समाधान पूज्य गुरु भगवन्त ऐसा फरमाते हैं - शैलक राजर्षि के ५०० पांच सौ ही शिष्य संसार अवस्था में मंत्री थे। उन सब में पंथकजी प्रमुख थे तथा साधु अवस्था में भी पंथक जी प्रमुख थे। “पंथक जी हम सब की अपेक्षा शैलक राजर्षि की वैयावृत्य, सुधा कार्य करने में विशेष दक्ष हैं। इसलिये उनको ही सेवा में रखना है" ऐसा सोचकर ही विहार करने वालों ने ही विहार सम्बन्धी विचार विमर्श किया। किन्तु पंथकजी को बुलाने की आवश्यकता नहीं समझी। अतः नहीं बुलाया, ऐसा ध्यान में आता है। पंथकजी को उन (शैलक राजर्षि) की शिथिल प्रवृत्ति ध्यान में थी, परन्तु मोहवश होकर • उस प्रवृत्ति को नहीं चलाते थे किन्तु शैलक राजर्षि को सुधारने की भावना थी और विश्वास भी था कि ये सुधर जायेंगे। अतः उन्होंने उस समय वैसी परिस्थिति देखकर उस प्रकार ही चलाया । शैलक राजर्षि जब तक अस्वस्थ थे तब तक तो इन्हीं वस्तुओं का उपयोग करने पर भी वे पार्श्वस्थादि नहीं थे, किन्तु स्वास्थ्य ठीक हो जाने पर भी निष्कारण उन सरस, प्राक, एषणीय वस्तुओं का गृद्धिता ( आसक्ति) से उपभोग करने के कारण उन्हें पार्श्वस्थादि बताया गया है। अतः परिस्थिति वश उपरोक्त प्रकार के पार्श्वस्थादि को वन्दनादि करने पर व्यवहार शुद्धि के लिए अल्प प्रायश्चित्त आता है। पंथजी की उन्हें सुधारने की भावना होने से भावभक्ति पूर्वक उनकी विनय वैयावृत्यादि करते थे। “शैलक राजर्षि को विहार के लिए पूछा और पंथकजी को सेवा में रखा।" इससे यह स्पष्ट होता है कि ४६६ साधुओं ने वन्दना आदि करके तथा बिना सम्बन्ध विच्छेद किये विहार किया। क्योंकि यदि सम्बन्ध विच्छेद करके जाते तो पंथकजी को सेवा में नहीं रखते। क्योंकि जिस कार्य के कारण छोड़कर जाते हैं उस कार्य को कराने की अनुमति तो दी ही है । अतः वन्दनादि भी किया है तथा कदाचित् समझ लें कि पंथक जी सेवा में नहीं रहते तो अन्य साधु रह जाते। अतः 'मर्यादाहीन की सेवा में रहना नहीं कल्पता है' ऐसा सोचकर तो नहीं गये थे। स्वास्थ्य के ठीक हो जाने से विशेष सेवा कार्य तो रहा नहीं और सामान्य सेवा कार्य तो एक दक्ष साधु से ही पर्याप्त जानकर 'सभी एक स्थान पर रहकर क्या करें?' ऐसा सोचकर विहार किया ऐसा लगता है। अतः जब शैलक राजर्षि के विहार का मालूम पड़ा तब 'अब एक जगह तो रहते नहीं हैं।' ऐसा सोचकर सेवा में आ गये । Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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