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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
शब्दार्थ - जत्ता - यात्रा, जवणिज - यापनीय, फासुयं - प्रासुक-निर्वद्य, अव्वाबाहनिर्विघ्न-बाधा रहित।
___ भावार्थ - तदनंतर शुक अपने एक हजार परिव्राजकों से घिरा हुआ, सुदर्शन सेठ के साथ .. नीलाशोक उद्यान में थावच्चापुत्र के पास आया। उनसे बोला - भगवन्! आपकी यात्रा चल रही है? यापनीय है? निर्बाध-विघ्न बाधा रहित है? आपका विहार अहिंसा पूर्वक-निर्वद्यरूप में चल रहा है?
शुक परिव्राजक द्वारा यों पूछे जाने पर थावच्चापुत्र ने उससे कहा - शुक! मेरी यात्रा भली भाँति, विघ्न-बाधा रहित, निर्बाध रूप में गतिशील है। मेरा विहार अहिंसामय, निर्वद्यरूप में चल रहा है।
(४५) तए णं से सुए थावच्चापुत्तं एवं वयासी-किं भंते! जत्ता? सुया! जं णं मम णाणदंसणचरित्ततवसंजममाइएहिं जोएहिं जोयणा से तं जत्ता। से किं तं भंते! जवणिजं ? सुया! जवणिजे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-इंदियजवणिजे य णो इंदियजवणिजे य। से किं तं इंदिय जवणिजं? सुया! जं णं ममं सोइंदियचक्खिंदियघाणिंदियजिभिंदिय-फासिंदियाई णिरुवहयाई वसे वटुंति से तं इंदियजवणिज। से किं तं णोइंदियजवणिजे? सुया! जं णं कोहमाणमाया-लोभा खीणा उवसंता णो उदयंति से तं णो इंदियजवणिजे।
शब्दार्थ - जोयणा - यतना, णिरुवहयाई - निरुपहत-निरुपद्रव, वशगत।। भावार्थ - शुक परिव्राजक ने थावच्चापुत्र को कहा-भगवन्! आपकी यात्रा क्या है? थावच्चापुत्र बोले-शुक! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि में यत्नशील रहना मेरी यात्रा है। शुक - भगवन्! आपका यापनीय क्या है?
थावच्चापुत्र - शुक! यापनीय दो प्रकार का होता है - इन्द्रिय यापनीय तथा नो-इन्द्रिय यापनीय।
शुक - आपका इन्द्रिय यापनीय क्या है?
थावच्चापुत्र - शुक! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षु-इन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय तथा स्पर्शनेन्द्रिय को निरुपद्रव रखना, वश में रखना-इन्द्रिय यापनीय है।
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