SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - शुक एवं थावच्चापुत्र का शास्त्रार्थ २८५ अर्थात् जिसके द्वारा किसी विषय का सूक्ष्मता एवं विस्तीर्णता से विश्लेषण किया जाता है, उसे व्याकरण कहा जाता है। व्याकरण शब्द का प्राचीन अर्थ यही रहा है किंतु भाषाविज्ञान के अनुसार आगे चलकर 'अर्थ संकोच' हो जाने पर इसका अर्थ 'शब्द शास्त्र' के रूप में सीमित हो गया। आज वही अर्थ प्रचलित है। यहाँ जो व्याकरण शब्द आया है, वह अर्थ संकोच के पूर्ववर्ती इसके सामान्य व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ से जुड़ा है। उपर्युक्त पाठ में जो 'अर्थ' शब्द आया है, वह 'अर्थ' शब्द अनेकार्थक है। कोशकार कहते हैं - ___ अर्थः स्याद् विषये मोक्षे, शब्दवाच्य-प्रयोजने। व्यवहारे धने शास्त्रे, वस्तु-हेतु-निवृत्तिषु॥ . अर्थात् - 'अर्थ' शब्द इन अर्थों का वाचक है - विषय, मोक्ष शब्द का वाच्य, प्रयोजन, व्यवहार, धन शास्त्र वस्तु, हेतु और निवृत्ति। इन अर्थों में से यहाँ अनेक अर्थ घटित हो सकते हैं किन्तु आगे शुक और थावच्चा पुत्र के संवाद का जो उल्लेख है, उसके आधार पर 'शब्द का वाच्य' अर्थ विशेषतः संगत लगता है। 'कुलत्था सरिसवया' आदि शब्दों के अर्थ को लेकर ही संवाद होता है। - प्रस्तुत सूत्र की शब्द-संरचना से ऐसा प्रतीत होता है कि वेद-वेदांगवेत्ता होने के साथ-साथ शुक परिव्राजक न्यायशास्त्र का भी विद्वान् था। इसीलिए उसके वक्तव्य में हेतु आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। शुक एवं थावच्चापुत्र का शास्त्रार्थ (४४) तए णं से सुए परिव्वायग-सहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्ठिणा सद्धिं जेणेव णीलासोए उज्जाणे जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी - जत्ता ते भंते! जवणिज्जं ते अव्वाबाहं पि ते फासुयं विहारं ते?। तए णं से थावच्चापुत्ते सुएणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्वायगं एवं वयासीसुया! जत्ता-वि मे जवणिज पि मे अव्वाबाहं-पि मे फासुय विहारंपि मे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy