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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
शब्दार्थ - संखाणं - सांख्यदर्शन के सिद्धांत, मंतेहि - मंत्रों द्वारा, असुई - अशुचिअपवित्र, सजो - सद्यः-तत्काल, पुढवीए - पृथ्वी से-मृत्तिका से, आलिप्पइ - लेप करते हैं, पक्खालिजइ - प्रक्षालित किया जाता है, धोया जाता है, जलाभिसेय-पूयप्पाणो - जलस्नान से पवित्र आत्मा, अविग्घेणं - बिना विघ्न के, सग्गं - स्वर्ग, पडिलाभेमाणे - प्रतिलाभित करता हुआ-देता हुआ।
भावार्थ - तदनंतर परिव्राजक शुक ने उस परिषद् को, सुदर्शन को तथा दूसरे अन्य बहुत से लोगों को सांख्य-मत का इस प्रकार उपदेश दिया। सुदर्शन! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है। शौच दो प्रकार का बतलाया गया है। द्रव्य-शौच तथा भाव-शौच। द्रव्य-शौच जल और मृत्तिका से होता है। भाव-शौच डाभ से और मंत्रों से होता है। देवानुप्रिय! जब हमारे यहाँ कोई वस्तु अशुचि-अपवित्र हो जाती है तो उस पर तत्काल मिट्टी का लेप करते हैं, मांजते हैं। फिर शुद्ध जल द्वारा उसे प्रक्षालित करते हैं। ऐसा करने पर वह अपवित्र वस्तु पवित्र हो जाती है। जीव जलाभिषेक से, जल स्नान से पवित्रात्मा होकर निर्विघ्नतया स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं। सुदर्शन शुक परिव्राजक का धर्मोपदेश सुनकर बहुत ही हर्षित हुआ। उसने शुक के पास शौचमूलक धर्म स्वीकार किया। विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य आदि द्वारा परिव्राजक को प्रतिलाभित किया। तदनंतर शुक परिव्राजक ने सौगंधिक नगरी से प्रस्थान किया और वह अन्यान्य प्रदेशों में जनपद विहार से विचरने लगा। .
थावच्चापुत्र का पदार्पण
(३४) तेणं कालेणं तेणं समएणं थावच्चापुत्तस्स समोसरणं। भावार्थ - उस काल, उस समय अनगार थावच्चापुत्र सौगंधिका नगरी में आए। थावच्चा पुत्र-सुदर्शन संवाद
(३५) परिसा णिग्गया। सुदंसणो वि णिग्गए! थावच्चापुत्तं वंदइ णमंसइ, वं० २ त्ता एवं वयासी - तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पण्णत्ते? तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं
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