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शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन - थावच्चापुत्र का वैराग्य
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पाहुडं गेण्हइ २ त्ता मित्त जाव संपरिवुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवरपडिदुवार-देसभाए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पडिहार देसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ २ त्ता तं महत्थं ४ पाहुडं उवणेइ २त्ता एवं वयासी -
शब्दार्थ - रायरिहं - राजाह-राजा को भेंट करने योग्य, पाहुडं - प्राभृत-भेंट, पडिदुवारप्रतिद्वार-मुख्य द्वार का अन्तवर्ती लघु द्वार, पडिहार देसिएणं - प्रतिहार-प्रहरी द्वारा दिखाए गए, वद्धावेइ - वर्धापित करती है। ...
भावार्थ - तत्पश्चात् थावच्चा अपने आसन से उठकर बहुत से बहुमूल्य महान् पुरुषों को देने योग्य, राजा को भेंट करने योग्य उपहार लेकर अपने सुहृदों, यावत् विविध संबद्धजनों से घिरी हुई कृष्ण वासुदेव के उत्तम राजप्रासाद के मुख्य द्वार के अन्तवर्ती लघु द्वार पर आई। प्रहरी द्वारा दिखलाए गए मार्ग से वह कृष्ण वासुदेव के पास पहुँची। उसने हाथ जोड़कर मस्तक नवाकर ससम्मान उन्हें वर्धापित किया और उन्हें बहुमूल्य, राजोचित, महत्त्वपूर्ण उपहार भेंट किए और वह उनसे निवेदन करने लगी।
(१५) एवं खलु देवाणुप्पिया! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते णामं दारए इठे जाव से णं संसारभउव्विग्गे इच्छइ अरहओ अरिट्ठणेमिस्स जाव पव्वइत्तए। अहं णं णिक्खमण-सक्कारं करेमि इच्छामि णं देवाणुप्पिया! थावच्चापुत्तस्स णिक्खममाणस्स छत्त-मउड-चामराओ य विदिण्णाओ।
भावार्थ - देवानुप्रिय! मेरा एकाकी पुत्र, जो मुझे अत्यंत प्रिय है, संसार के भय से उद्विग्न होकर भगवान् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या लेना चाहता है। मैं उसका निष्क्रमण सत्कार-दीक्षामहोत्सव करना चाहती हूँ। इसलिए देवानुप्रिय। निष्क्रमणोन्मुख प्रव्रज्यार्थी मेरे पुत्र के लिए आप राजकीय छत्र, मुकुट, चँवर प्रदान करें, यह मेरी अभिलाषा है। ...
(१६) . . - तए णं कण्हे वासुदेवे थावच्चागाहावइणिं एवं वयासी-“अच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिए! सुणिव्वुया वीसत्था। अहं णं सयमेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स णिक्खमणसक्कारं करिस्सामि।"
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