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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
भावार्थ तब कृष्ण वासुदेव ने समुद्र विजय आदि दस दशाह यावत् अन्यान्य विशिष्टजनों को अपने पास उपस्थित हुआ देखा। उन्हें बड़ा हर्ष एवं परितोष हुआ, यावत् कौटुंबिक पुरुषोंसेवकों को बुलाया। उनसे कहा - शीघ्र ही चतुरंगिणी सेना तैयार कराओ। विजय नामक गंध हस्ति को यहाँ लाओ। जो आज्ञा स्वामी-ऐसा कहकर उन्होंने वैसा ही किया यावत् वासुदेव कृष्ण आदि सभी स्नानादि कर तैयार हुए और अपनी महिमा के अनुरूप अर्हत् अरिष्टनेमि की सेवामें उपस्थित हुए। यथाविधि वंदन, नमस्कार कर उनकी पर्युपासना करने लगे ।
थावच्चापुत्र का वैराग्य (१३)
थावच्चापुत्ते वि णिग्गए जहा मेहे तहेव धम्मं सोच्चा णिसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ जहा मेहस्स तहा चेव - णिवेयणा जाहे णो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा ४ ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्त दारगस्स णिक्खमण - मणुमण्णित्था । णवरं णिक्खमणाभिसेयं पासामो, तए णं से थावच्चापुत्ते तुसिणीए संचिट्ठा ।
शब्दार्थ. - णिवेयणा - निवेदना-वर्णन, अणुमण्णित्था - अनुमति प्रदान की ।
भावार्थ - थावच्चापुत्र अपने भवन से चला। जिस प्रकार मेघकुमार को भगवान् महावीर स्वामी से धर्मोपदेश सुनकर वैराग्य हुआ, वैसे ही थावच्चापुत्र को भी भगवान् अष्ट देशना सुनकर संसार से विरक्ति हुई । वह अपनी माता थावच्चा के पास आया। उसके पैर पकड़े। यहाँ भाव रूप में मेघकुमार से संबद्ध वर्णन योजनीय है। जब सांसारिक विषयों के अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही पक्षों को लेते हुए बहुत प्रकार से उसे समझाने-बुझाने के बावजूद संयम से - विरक्त भावना से हटाया नहीं जा सका, तब माता ने निष्क्रमण - प्रव्रज्या की अनुमति प्रदान कर दी। मेघकुमार के वर्णन से यहाँ इतनी सी विशेषता है कि माता ने कहा- मैं तुम्हारे दीक्षा समारोह को देखना चाहती हूँ। तब थावच्चापुत्र मौन हो गया।
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(१४)
तए णं सा थावच्चा आसणाओ अब्भुट्ठेइ २ त्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं
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