SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५६ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र उवणाय गाहाउ - विसएसु इंदिआइं रुंभंता रागदोसणिम्मुक्का। पावंति णिव्वुइसुहं कुम्मुव्व मयंगदहसोक्खं ॥१॥ अवरे उ अणत्थ परंपरा उ पावेंति पावकम्मवसा। संसारसागरगया गोमाउग्गसिय-कुम्मोव्व॥ २॥ ॥चउत्थं अज्झयणं समत्तं॥ शब्दार्थ - रुंभंता - अवरोध करते हुए, णिम्मुक्का - निर्मुक्त, णिव्वुइसुहं - निर्वृतिसुखपरमशांति रूप आध्यात्मिक आनंद, पावकम्मवसा - पाप कर्म के कारण, गोमाउ - श्रृगाल, गसिय - ग्रसित-खाए गए, कुम्मोव्व - कछुए की तरह। .. भावार्थ - राग और द्वेष से रहित जो साधक अपनी इन्द्रियों को विषय प्रवृत्त होने से रोकते हैं, वे परम शांति, परमसुख प्राप्त करते हैं, जैसे अपने अंगों को गोपित रखने वाले कछुए ने मृतगंगद्रह में सुख प्राप्त किया।। १॥ जो अन्य अपनी इन्द्रियों को गोपित नहीं रखते, वे पापकर्मों के परिणाम स्वरूप अनेकानेक दुःख प्राप्त करते हैं, सियारों द्वारा खाए गए अगुप्तेन्द्रिय कछुए की तरह संसार-सागर में पड़े रहते हैं, घूमते रहते हैं॥ २॥ ॥ चौथा अध्ययन समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy