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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
बजाते ही अपनी गर्दन को सिंहादि की पूँछ की ज्यों टेढा करके, अपने पंखों को शरीर से पृथक् कर, पिच्छकलाप को छत्राकार ऊँचा कर, सैकड़ों केकारव करता हुआ नाचने लगता।
जिनदत्त पुत्र उस तरूण मयूर को चंपा नगरी के चौराहों, चौकों, विभिन्न मार्गों पर अन्य मयूरों के साथ नर्तन कला आदि की प्रतिस्पर्धा में सैकड़ों, हजारों, लाखों की बाजी लगाकर, उसमें विजय प्राप्त करता।
(२६) एवामेव समणाउसो! जो अम्हं णिगंथो वा २ पव्वइए समाणे. पंचसुमहव्वएसु छज्जीवणिकाएसु णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिए णिक्कंखिए णिव्वितिगिच्छे से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं जाव वीइवइस्सइ। एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं णायाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते-त्ति बेमि।
__भावार्थ - हे आयुष्मान् श्रमणो! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी के रूप में प्रव्रजित हैं, पांच महाव्रत, षड्जीवनिकाय तथा निर्ग्रन्थ प्रवचन में निःशंक, निराकांक्ष और विचिकित्सा-संशय रहित हैं, वे उसी भव में बहुत से श्रमणों एवं श्रमणियों से सम्मानित-सत्कृत होते हुए संसार रूप महाअरण्य को पार कर लेंगे। ___हे जंबू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने ‘णायधम्मकहाओ' के तीसरे अध्ययन का यह अभिप्राय प्रज्ञप्त किया, ऐसा मैं कहता हूँ। उवणय गाहाओ -
. जिणवरभासियभावेसु, भावसच्चेसु भावओ मइमं।
णो कुजा संदेहं, संदेहोऽणत्थहेउत्ति॥ १॥ णिस्संदेहत्तं पुण, गुणहेउं जं तओ तयं कजं। एत्थं दो सिट्ठिसुया, अंडयग ही उदाहरणं॥ २॥ कत्थइ मइदुब्बल्लेण, तब्विहायरियविरहओ वा वि। णेयगहणत्तणेणं, णाणावरणोदएणं च॥ ३॥ हेऊदाहरणासंभवे य, सइ सुट्ट जंण बुज्झिजा।। सव्वण्णुमय-मवितहं,,तहावि इइ चिंतए मइमं॥ ४॥
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