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________________ २३० ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र शब्दार्थ - सिवसाहणेसु - मुक्ति के साधनों में-प्रतिलेखन आदि क्रियाओं में, आहारविरहिओ - भोजन रहित, वट्टए - प्रवृत्त होता है, पोसेजा - पोषण करें। भावार्थ - यदि शरीर को आहार न दिया जाए तो वह मुक्ति के साधनभूत संयमोपयोगी क्रियोपक्रमों में प्रवृत्त, समर्थ नहीं होता। अतएव जिस अभिप्राय से धन्य सार्थवाह ने विजय चोर . का पोषण किया, उसी भाव से साधु को अपनी देह का पोषण करना चाहिए। इस प्रकार हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने द्वितीय ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है। विवेचन - व्याख्याकारों ने इस अध्ययन के दृष्टान्त की योजना इस प्रकार की है - उदाहरण में जो राजगृह नगर कहा है, उसके स्थान पर मनुष्य क्षेत्र समझना चाहिए। धन्य सार्थवाह साधु का प्रतीक है, विजय चोर के समान साधु का शरीर है। पुत्र देवदत्त के स्थान पर अनन्त अनुपम आनंद का कारणभूत संयम समझना चाहिए। जैसे पंथक के प्रमाद से देवदत्त का घात हुआ, उसी प्रकार शरीर की प्रमादरूप अशुभ प्रवृत्ति से संयम का घात होता है। देवदत्त के आभूषणों के स्थान पर इन्द्रिय-विषय समझना चाहिए। इन विषयों के प्रलोभन में पड़ा हुआ मनुष्य संयम का घात कर डालता है। हडिबंधन के समान जीव और शरीर का अभिन्न रूप से रहना समझना चाहिए। राजा के स्थान पर कर्मफल समझना चाहिए। कर्म की प्रकृतियां राजपुरुषों के समान हैं। अल्प अपराध के स्थान पर मनुष्यायु के बंध के हेतु समझने चाहिए। उच्चारप्रस्रवण की जगह प्रत्युपेक्षण आदि क्रियाएं समझना चाहिए अर्थात् जैसे आहार न देने से विजय चोर उच्चार-प्रस्रवण के लिए प्रवृत्त नहीं हुआ उसी प्रकार यह शरीर आहार के बिना प्रत्युपेक्षण आदि क्रियाओं के प्रवृत्त नहीं होता। पंथक के स्थान पर मुग्ध साधु समझना चाहिए। भद्रा सार्थवाही को आचार्य के स्थान पर जानना चाहिए। किसी मुग्ध (भोले) साधु के मुख से जब आचार्य किसी साधु का अशनादि से शरीर का पोषण करना सुनते हैं, तब वह साधु को उपालंभ देते हैं। जब वह साधु बतलाता है कि मैंने विषयभोग आदि के लिए शरीर का पोषण नहीं किया, परन्तु ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना के लिए शरीर को आहार दिया है, तब गुरु को संतोष हो जाता है। ॥ द्वितीय अध्ययन समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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