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संघाट नामक दूसरा अध्ययन - निष्कर्ष (उपसंहार)
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शब्दार्थ - वहणयाए - धारण या पालन के लिए, अच्चणिजे - अर्चनीय-अर्चन योग्य, पजुवासणिजे - पर्युपासनीय-पर्युपासना योग्य, उप्पायणाणि - उत्पाटन-उखाड़ना, वसणु - वृषण-अण्डकोश, उल्लंबणाणि - उल्लंबन-ऊंचे पेड़ की शाखा में बांध कर लटकाना, पाविहिइप्राप्स्यति-प्राप्त करेगा, वीईवइस्सइ - व्यतिव्रजित करेगा-पार करेगा।
भावार्थ - आर्य सुधर्मा स्वामी ने कहा-हे जंबू! जिस प्रकार धन्य सार्थवाह ने विजयचोर को धर्म, तप, प्रत्युपकार इत्यादि समझ कर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि पदार्थ नहीं दिए वरन् अपनी देह की रक्षा के निमित्त अपने भोजन का हिस्सा उसे दिया। उसी प्रकार साधुसाध्वी यावत् गृहत्याग कर जो अनगार धर्म में प्रव्रजित हैं, जिन्होंने स्नान, उपमर्दन, पुष्प, गंध, माला आदि विभूषा का परित्याग किया है। वे अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि का जो आहार करते हैं, वह अपने औदारिक शरीर के वर्ण, रूप, विषय सुख के लिए नहीं करते। यह शरीर ज्ञान, दर्शन और चारित्र को वहन करने का साधन मात्र है, यह सोचकर आहार करते हैं। वे इस लोक में बहुत से श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका-वृंद द्वारा अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय होते हैं। परलोक में वे हस्त, कर्ण एवं नासिका छेदन, हृदय एवं वृषण उत्पाटन, उल्लंबन जैसे घोर कष्ट नहीं पाते। वे अनादि -अनंत दीर्घ यावत् चतुर्गतिमय संसार रूप महावन के मार्ग को लांघ जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं, जिस प्रकार धन्य सार्थवाह ने किया। .
. . (५४) एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिबेमि।
. भावार्थ - आर्य सुधर्मा स्वामी बोले-श्रमण यावत् अनेकानेक उत्तमोत्तम गुण संपन्न भगवान् महावीर स्वामी ने द्वितीय ज्ञात अध्ययन का यह अर्थ, विवेचन निरूपित किया है, ऐसा मैं कहता हूँ। अर्थात् यह भगवान् महावीर स्वामी का कथन है, जिसे मैं प्रतिपादित कर रहा हूँ। उवणय गाहा-उपनय गाथा -
सिवसाहणेसु आहार-विरहिओ जंण वट्टए देहो। तम्हा धण्णोव्व विजयं साहू तं तेण पोसेजा॥
॥ बीयं अज्झयणं समत्तं॥
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