SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र रेखाएं घिसती थी। कार्तिक पूर्णिमा के परिपूर्ण चन्द्र के सदृश उसका मुख सौम्य था। उसकी वेश भूषा इतनी सुंदर थी मानो वह श्रृंगार रस का आगार हो, साक्षात् रूप हो, सौंदर्य की प्रतिमूर्ति हो किन्तु वह वन्ध्या एवं संतानोत्पति के अयोग्य थी। मानो वह अपने घुटनों और कोहनियों की माँ थी क्योंकि वे ही स्तन्यपानार्थ उसके स्तनों का संस्पर्श करते थे। विवेचन - इस सूत्र में धन्य नामक व्यक्ति के साथ 'सत्थवाहे' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'सत्थवाह' का संस्कृत रूप “सार्थवाह" है। यह सार्थ तथा वाह-दो पदों से निष्पन्न है। सार्थ में स+अर्थ का योग है। 'अर्थेन सह इति-सार्थः*। सार्थवहतीति सार्थवाहः।' 'अर्थ' शब्द प्रयोजन आकांक्षा, उद्देश्य, कारण आशय कार्य, व्यापार, जायदाद, धन, समृद्धि क्रेय-विक्रेय पदार्थ-तिजारती सामान आदि अनेक भावों का द्योतक है *। . सार्थवाह शब्द का जैनागम तथा कथा साहित्य में स्थान स्थान पर प्रयोग मिलता है। सार्थवाह बड़े व्यापारी के अर्थ में है। सार्थ का एक अर्थ काफिला भी है। प्राचीन काल में जब आवागमन के साधनों का विकास नहीं हुआ था तब व्यापारी एक समूह के रूप में अन्य स्थानों पर व्यापार हेतु जाते थे। उसे 'सार्थ' कहा जाता था। जो सार्थ या काफिले का नायक या प्रधान होता, उसे 'सार्थवाह' कहा जाता। ये सार्थ एक देश के भिन्न-भिन्न भूभागों में व्यापारार्थ जाते थे। जो बड़े सार्थवाह होते, वे पोत, जलयान द्वारा दूर-दूर के देशों में भी जाते। जब कोई सार्थवाह व्यापारार्थ दूर देश की यात्रा पर जाता तब जाने से पूर्व नगर में घोषणा करवा देता कि जिन व्यापारियों को व्यापार हेतु जाना हो, वे अपना माल लेकर उसके जलयान में यात्रा कर सकते हैं। सार्थवाह की ओर से मार्ग में खाद्य सामग्री जल आदि की सुविधा के अतिरिक्त सुरक्षा की भी व्यवस्था रहती। छोटे व्यापारी एकाकी व्यापारार्थ नहीं जा सकते थे। सार्थ के साथ जाने वाले अपनी विक्रेय सामग्री जहाँ-जहाँ लाभ प्राप्त होता, बेचते रहते एवं वहाँ होने वाली सामग्री खरीदते रहते क्योंकि जहाज में वापस लाने की सुविधा थी। सार्थ या काफिले का संचालन काफी श्रमसाध्य एवं व्ययसाध्य होता था। इसीलिए सार्थवाह का समाज में बहुत आदर था। सार्थ या काफिले की व्यवस्था से यह स्पष्ट होता है कि बड़े व्यापारियों की छोटे व्यापारियों के साथ भी बहुत सहानुभूति होती थी एवं वे स्वेच्छा पूर्वक उन्हें व्यापार में सहयोग करना चाहते थे। सामाजिक सौहार्द का यह एक अनूठा रूप था। * संस्कृत, इंग्लिश डिक्शनरी, पृष्ठ १५०-१५१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy