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प्रथम अध्ययन समाधि-मरण
आरुहेइ २ त्ता गोयमाइ समणे णिग्गंथे णिग्गंथीओ य खामेइ २ त्ता तहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं २ दुरूहइ, दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसण्णिगासं पुढवि-सिलापट्टयं पडिलेहेइ २ त्ता उच्चार पासवण - भूमिं पडिले २ त्ता दब्भसंथारग संथरइ २ त्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता पुरत्थाभिमु संपलियंकणिसण्णे करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी
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णमोत्थूणं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स । वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं - तिकट्टु वंदइ णमंसइ, वंदित्ता मंत्ि एवं वयासी शब्दार्थ अस्तु हो, संपत्ताणं अत्थु संप्राप्त करने की इच्छा वाले, दब्भसंथारगं डाभ का बिछौना, संथरइ - बिछाता है, तत्थगयं - वहाँ - गुणशील चैत्य में स्थित, इहगयं - यहाँ विपुलाचल पर्वत पर विद्यमान ।
संप्राप्त किए हुए, संपाविउकामस्स
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भावार्थ - मुनि मेघकुमार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से आज्ञा प्राप्त कर बहुत हर्षित एवं प्रसन्न हुए। वे अपनी शक्ति संजोकर उठे एवं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा पूर्वक वंदन, नमस्कार किया। स्वयं ही पाँच महाव्रतों पर आरोहण किया, उच्चारण पूर्वक अंगीकार किया। गौतमादि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों से क्षमत- क्षमापना किया। समाधि मरणावस्था में सहयोगी श्रमण मुनियों के साथ विपुलाचल पर धीरे-धीरे चढ़े। सघन मेघ सदृश श्याम वर्ण के पृथ्वी शिलापट्टक की एवं उच्चार प्रस्रवण भूमि का स्वयं प्रतिलेखन किया। उस पर डाभ का आसन बिछाया, उस पर अवस्थित हुआ। फिर पूर्व की ओर मुँह कर, पद्मासन में स्थित होते हुए, नमन की मुद्रा में तीन बार हाथों को मस्तक पर घुमाते हुए बोला
सिद्धि प्राप्त अरहंत भगवंतों को नमस्कार हो । सिद्धि प्राप्ति के अभिलाषी मेरे धर्माचार्य भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार हो। मैं यहाँ विपुलाचल पर स्थित होता हुआ, उनको वंदन करता हूँ। वहाँ गुणशील चैत्य में स्थित भगवान् मुझको देखें। यों कहकर वंदन - नमस्कार करता हुआ, वह इस प्रकार कहता है।
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