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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
ममता का त्याग कर स्थिरता पूर्वक उन्हें सहन करता है । वह भिक्षा में मात्र एक दत्ति ह स्वीकार करता है । दत्ति का अभिप्राय यह है कि भिक्षा देते समय दाता द्वारा एक बार में साधु के पात्र में जितना आहार आ जाय वह 'एक दत्ति' कहलाता है। जलादि तरल पदार्थों के लिए ऐसा विधान है कि देते समय जितने काल तक उनकी धारा अखंडित रहे, वह एक दत्ति है । कहीं-कहीं दत्ति का तात्पर्य एक कवल या ग्रास भी है ।
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वह ध्यान रखे कि परिवार के सभी लोग भोजन कर चुके हों, अतिथि, अभ्यागत आदि को भोजन दे दिया गया हो, गृहस्थ अकेला भोजन करने बैठा हो, ऐसी स्थितियों में हीं वह भिक्षा स्वीकार कर सकता है। जहाँ दो, तीन, चार पांच व्यक्ति भोजन करने बैठे हों, वहाँ वह आहार नहीं ले सकता । गर्भवती स्त्री के लिए विशेष रूप से जो पदार्थ बना हो उसके भोजन किए बिना वह उसमें से ग्रहण नहीं कर सकता। यही बात बालकों के लिए बने भोजन के साथहै । अपने बच्चे को स्तन पान कराती माता यदि बच्चे को छोड़कर आहार पानी दे तो वह नहीं ले सकता। भिक्षा के संबंध में इसी प्रकार और भी नियम हैं, जो साधु के संयममय जीवन को निश्चय ही निर्मल बनाते हैं । प्रतिमाधारी भिक्षु उस स्थान पर, जहाँ उसे कोई पहचानता हो, केवल एक ही रात्रि निवास करें। फिर वह विहार कर दे । जहाँ उसे कोई पहचानने वाला न हो, वहाँ एक रात - दो रात निवास कर सकता है। यदि उससे अधिक वह वहाँ निवास करता है तो दीक्षा का छेद या परिहार का प्रायश्चित्त आता है।
प्रतिमाधारी साधु चार प्रयोजनों से भाषा का प्रयोग करता है । १. आहारादि लेने हेतु २. शास्त्राध्ययन एवं मार्ग पूछने हेतु ३. स्थानादि की आज्ञा प्राप्त करने हेतु ४. प्रश्नों या शंकाओं का समाधान करने हेतु । प्रतिमाधारी साधु जहाँ ठहरा हो, यदि कोई वहाँ आग लगा देत बचने के लिए उस स्थान से निकलना, अन्य स्थान में जाना, उसके लिए कल्पनीय नहीं है। यदि कोई व्यक्ति उस साधु को आग से निकालने हेतु भुजा पकड़ कर खींचे तो प्रतिमाधारी साधु के लिए उस गृहस्थ को पकड़ कर रखना कल्पनीय नहीं है किंतु ईर्यासमिति पूर्वक बाहर जाना कल्पनीय है। यदि उसके पैर में कील, कण्टक, तिनका, कंकड़ आदि धँस जाय तो उन्हें निकालना उसे नहीं कल्पता । यदि उसके नेत्र में मच्छर, बीज, रजकण आदि पड़ जाएँ तो उन्हें निकालना नहीं कल्पता । यदि प्रतिमाधारी साधु के सामने अश्व, हस्ति, वृषभ, महिष, सूकर, श्वान, व्याघ्र आदि प्राणी या क्रूर स्वभाव के मनुष्य आ रहे हों तो उन्हें देख कर उसे वापस लौटना या पैर भी इधर-उधर करना नहीं कल्पता । प्रतिमाधारी साधु के लिए छाया से धूप में
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