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प्रथम अध्ययन - मेरुप्रभ द्वारा अनुकंपा एवं फल प्राप्ति
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(१८६) तएणं ते बहवे हत्थी जाव छुहाएय परब्भाहया समाणा तओ मंडलाओ पडिणिक्खमंति २ ता दिसोदिसिं विप्पसरित्था। तए णं तुमं मेहा! जुण्णे जराज्जरियदेहे सिढिल-वलितया-पिणिद्धगत्ते दुब्बले किलंते गँजिए पिवासिए अत्थामे अबले अपरक्कमे अचंकमणो वा ठाणुखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामि त्तिकट्ठ पाए पसारेमाणे विज्जुहए विव रययगिरिपब्भारे धरणि तलंसि सव्वंगेहिं सण्णिवइए।
शब्दार्थ - सिढिल - शिथिल, वलितया - वलित्वचा-झुर्रियों से युक्त चमड़ी, पिणिद्धआच्छादित, गँजिए - क्षुधा युक्त, अत्थाने - स्थिरता रहित, अचंकमणो - चलने में असमर्थ, ठाणुखंडे - ढूंठ के टुकड़े के सदृश, विप्परिस्सामि - आगे चलूँ, विजुहए विव - बिजली द्वारा आहत, रयर्यगिरिपब्भारे - रजतगिरी के खंड की तरह, धरणितलंसि - भूतल पर, सव्वंगेहिं - सभी अंगों से, सण्णिवइए - गिर पड़ा। . भावार्थ - तब बहुत से हाथी पीड़ा, क्षुधा आदि से पीड़ित होते हुए उस मंडल से निकले
और भिन्न-भिन्न दिशाओं में चले गए। मेघ! तुम उस समय जीर्ण एवं जरा-जर्जर देहयुक्त हो गए थे। तुम्हारे शरीर की चमड़ी शिथिल हो गई थी। उस पर झुर्रियां लटकने लगी थीं। तुम बहुत ही दुर्बल, क्लांत, क्षुधित, पिपासित, अस्थिर, अशक्त एवं पराक्रम शून्य हो गए थे। चलनेफिरने में असमर्थ होकर ढूंठ जैसे हो गए थे। तुमने “मैं वेग पूर्वक चलूँ" ऐसा सोचकर अपना पैर फैलाया तो इस प्रकार पृथ्वी तल पर गिर पड़े मानो बिजली गिरने से बैंताय पर्वत का कोई खण्ड आपतित हो गया हो।
(१८७) तए णं तव मेहा! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दाहवक्कंतीए यावि विहरसि। तए णं तुमं मेहा! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिण्णि राइंदियाई वेयणं वेयमाणे विहरित्ता एगं वाससयं परमाउं पाइलत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे णयरे सेणियस्स रण्णो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पच्चायाए।
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