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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
(१८० )
अह मेहा! तुमं गइंदभावम्मि वट्टमाणो कमेणं णलिणि-वण- विवह- नगरे हेमंते कुंद - लोद्ध-उ - उद्धत - तुसार- पउरम्मि अइक्कंते अहिणवे गिम्ह समयंसि पत्ते वियट्टमाणे वणेसु वणकरेणु - विविह-दिण्णकय पंसुवघाओ तुमं उउय - कुसुमकय चामर- कण्णपूर परिमंडियाभिरामो मयवस - विगसंत कड - तडकिलिण्णगंधमदवारिणा सुरभि - जणियगंधो करेणु परिवारिओ उउ - समत्त - जणियसोहो काले दियर - करपयंडे परिसोसिय-तरुवर - सिहर - भीमतर- दंसणिज्जे भिंगाररवंत - भेरवरवे - णाणाविह पत्तकट्ठ तण-कय वरुद्भुत पइमारुयाइद्ध-णहयलदुमगणे वाउलिया - दारुणतरे तण्हावस- -दोस दूसिय-भमंत विविह- साक्य - समाउले भीम दरिसणिज्जे वहंते दारुणम्मि गिम्हे मारुयवस - पसर - पसरिय-वियंभिएणं, अब्भहिय-भीम भेरव-रवप्पगारेणं महुधारा - पडिय - सित्त - उद्धायमाण धगधगंतसदुद्धएणं दित्ततर-सफुलिंगेणं धूममालाउलेणं सावय-सयंत करणेणं अब्भहियवण दवेणं जालालोविय - णिरुद्ध-धूमंधकारभीओ आयवालोय महंत - तुंबइयपुण्णकण्णो आकुंचिय थोर पीवरकरो भयवस भयंत दित्त णयणो वेगेण महामेहोव्व पवणोल्लियमहल्लरूवो जेणेव कओ ते पुरा दवग्गिभय-भीयहियएणं अवगय-तण-प्पएसरुक्खो रुक्खोद्देसो दवग्गि-संताण-कारणट्ठाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए । एक्को ताव एस गमो ।
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शब्दार्थ - गइंदभावम्मि - गजेन्द्र भाव में, वट्टमाणो विवहणगरे - विनाश करने वाले, हेमंते - हेमंत ऋतु आने होने वाला - लोध्र नामक वृक्ष विशेष, तुसार - बर्फ, पउरम्मि प्रचुरता युक्त, अहिणवे - नूतन, वियट्टमाणे - इधर-उधर घूमते हुए, पंसुवघाओ - क्रीडावश धूली प्रहार, उउयकुसुमऋतुज पुष्प - ग्रीष्म ऋतु में होने वाले फूल, मयवस मद के कारण, विगसंत - प्रफुल्लित होते हुए, कडतड - कपोल - स्थल, किलिण्ण- आर्द्र - गीले, उउसमत्त ऋतु के अनुकूल, परांडे - प्रचण्ड, परिसोसिय- परिशोषित-शुष्क बने हुए, सिहर - शिखर, भेरव रखे - भयंकर शब्द, उद्भुत - ऊपर उड़ाए गए, पउमारुय प्रतिकूल वायु, आइद्ध - व्याप्त, णहयल
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वर्तमान, णलिणि - कमलिनि,
पर, लोद्ध - हेमंत में विकसित
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