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प्रथम अध्ययन - विशाल मंडल की संरचना
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हत्थेणं गेण्हसि एगंते एडेसि। तए णं तुम मेहा! तस्सेव मंडलस्स अदूरसामंते गंगाए महाणईए दाहिणिल्ले कूले विंझगिरि-पायमूले गिरीसु य जाव विहरसि। ____ शब्दार्थ - पढम पाउसंसि - वर्षाकाल के प्रारम्भ में, महावुट्ठिकायंसि - अत्यधिक वर्षा होने पर, सण्णिवइयंसि - सन्निकट, जोयण - एक योजन के घेरे वाला, घाएसि - वृक्ष घास आदि साफ कराना, कटुं - काष्ठ, कंटए - काँटे, खाणुं - स्थाणु, लूंठ, खुवे - छोटी झाड़ियाँ आदि, आहुणिय - हिलाकर, उट्ठवेसि - उखाडता है, एडेसि - डालता है।
भावार्थ - हे मेघ! एक बार तुमने वर्षा ऋतु के प्रारंभ में, अत्यधिक वर्षा होने पर, गंगा महानदी के समीप बहुत से हाथियों हथिनियों से परिवृत होकर एक बहुत बड़ा मंडल बनाया, जिसका घेरा एक योजन का था। वहाँ जो भी तृण, पत्र, काष्ठ, कण्टक, लता-वल्ली, सूखे ढूंठ, पेड़ आदि थे उन सबको तुमने तीन-तीन बार हिला-हिला कर उखाड़ डाला तथा सूंड से गृहीत कर एक ओर ले जाकर डाल दिया।
__तदनंतर तुम उसी मंडल से न बहुत दूर न अधिक निकट आस-पास, गंगा महानदी के दक्षिणी तट पर, विन्ध्याचल पर्वत की तलहटी में विचरण करते हुए रहने लगे।
(१७६) तए णं तुमं मेहा! अण्णया कयाइ मज्झिमए वरिसा-रत्तंसि महावुट्टिकार्यसि सण्णिवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि उवागच्छित्ता दोच्वंपि मंडलं घाएसि, एवं चरिमे-वासा-रत्तंसि महा-वुट्टिकायंसि सण्णिवइय-माणंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि उवागच्छित्ता तच्चपि मंडलघायं करेसि जं तत्थ तणं वा जाव सुहंसुहेणं विहरसि।
शब्दार्थ - वरिसा-रत्तंसि - बरसाती रात में, महावुट्टिकायंसि - घनघोर वर्षा, सण्णिवइयंसि - होने पर, चरिम वासा-रत्तंसि - अंतिम बरसाती रात में।
भावार्थ - मेघ! किसी दूसरे समय जब वर्षा ऋतु का मध्यकाल था, एक बरसाती रात में घनघोर वर्षा हुई। तुम जहाँ मण्डल था, वहाँ आए और दूसरी बार उस मंडल को घास-पात, झाड़-झंखाड़ आदि हटाकर साफ किया। इसी प्रकार वर्षा ऋतु के अंतिम समय में जब एक रात अत्यधिक वृष्टि हुई तब फिर उस मंडल में आए और उसकी तृणादि हटाकर सफाई की एवं तुम सुखपूर्वक विचरण करने लगे।
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